आस्था

आप ही है दृश्य और आप ही हैं दिव्य दृष्टि,
तो भी हम आपसे ही आपको दिखाएंगे।।

आप ही हैं गाने वाले, आप ही हैं स्वरताल।
तो भी हम गुणगान आपको सुनाएंगे।।

आप ही है पुजारी, आप ही पूज्य देव,
तो भी हम आप पर पुष्पों को चढ़ाएंगे।।

आप ही हमारे प्राण, प्राणों को प्रांण
तो भी प्राणों की बाजी हम आप पर लगाएंगे।।

वेदरुपी वाणी ने भी खोला नहीं भेद पूरा,
आप का स्वरूप नहीं किसी ने बताया है॥

बार-बार भूल जाता आपको क्यों जीव,
तब आप से ही आया जब आप में समाया है।।

मिलता-जुलता ना क्यों आपसे संसार यह,
बन करके आपकी काया की ही छाया है।।

वाहा-वाहा मायानाथ, नित्य महामाया को भी,
माया में फंसाने में आपकी ही माया है।।

— राहुल गुप्ता

मैं आदरणीय गुरु जी (पिताजी) को कोटि-कोटि नमन करता हूं, जिन्होंने इस जीवन की वास्तविकता को बहुत सरल शब्दों में इस पुस्तक में व्याख्यान किया। इस पुस्तक के माध्यम से एक अबोध व्यक्ति भी जीवन चक्र से निकलकर सरलता से मोक्ष प्राप्ति कर सकता है।

मैं प्रभु का बहुत आभारी हूं कि आपने मुझे पिताजी (गुरुजी) के रूप में साक्षात भगवान दिये हैं, जो हमें इस कलयुग में, साक्षात श्री भगवान (प्रभु) में चित्त लगाने के लिए सरलता से प्रेरित करते रहते हैं। इस पुस्तक के लिए मेरे शब्दकोश में शब्द नहीं, मैं निशब्द हूं, मन बहुत विचलित है कि इसकी सराहना में मैं जो-जो लिखुं, वह बहुत थोड़ा है।

क्या दूं प्रभु जी, मन ही मन मैं सोचूं
चुका ना पाऊं ऋण मैं तेरा, अगर जीवन भी अपना दे दूं

— तरुण गुप्ता