धर्म की उत्पत्ति एवं ईश्वरीय उपासना
धर्म
धर्म क्या है; और इसकी आवश्यकता की उत्पति कब, कहाँ और क्यों हुई? मनुष्य की बुद्धि का जैसे-जैसे विकास हुआ; उसमे प्रेम, दया, धैर्य जैसे सकारात्मक भावों के विपरीत क्रोध, ईर्ष्या जैसे भावों ने मनुष्य की बौद्धिक धरोहर में अपना स्थान बनाया। वैज्ञानिक रूप में इसे विकास कहा जा सकता है; परन्तु नैतिक मूल्यों का इस विकास के कारण खंडित होना माना जाएगा।
इतिहास के पन्नों को अगर पलटा जाए; तो पृथ्वी के किसी भी भूगोल क्षेत्र में अगर विचरण किया जाये तब हमें कई ऐसे प्रमाण मिलेंगे जहाँ जन-जन अन्याय, पाप और अत्याचार ने अपनी सीमा लांघी; तब-तब सृष्टि के निर्माता ने विभिन्न रूपों में पृथ्वी पर आकर मनुष्य को धर्म और न्याय की परिभाषा से अवगत कराया। नकारात्मक प्रव्रतियों को शांत करने के लिए पूजा- अर्चना जैसी गतिविधियों को अपनी दिनचर्या में उतारने की प्रेरणा दी।
ईश्वर का स्वरूप किसी भी धर्म का हो; इसका मूल सदैव एक ही रहता है। मनुष्य ने अपनी सोच के अनुसार अपने जीवन काल की विपदाओं का हल ढूँढने के लिए कई विकल्प निकाले। जिनका वह हल निकालने में असफल रहा। आत्मा के वशीभूत उसे इस ज्ञान की अनुभूति हुई कि कोई कहीं एक आलौकिक शक्ति अवश्य है, जिस से यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड एक निर्धारित गति से चल रहा है।
सूर्य का उगना, जो समस्त सृष्टि को प्रकाशित कर देता है; फिर उसका अस्त होना और फिर चंद्रमा का आगमन, जो अंधकार में भी प्रकाश की अनुभूति कराता है, वर्षा जिसमें निर्जीव प्राणी में भी जान डालने की क्षमता है। पेड-पौधे, जो मनुष्य की विभिन्न आवश्कताओं की पूर्ति करते हैं, तथा लाखों-सैकड़ों जाति-प्रजाति है।
इन सबका निर्माता कौन है? कौन चला रहा है यह प्रकर्ति चक्र? जीवन म्रत्यु की ये डोर किसकी ऊँगलियों पर नृत्य कर रहीं है।
प्रकाश के प्रदाता सूर्य की पूजा प्राचीन काल से चली आ रही है। तो फिर प्रश्न उठता है कि यदि सूर्य ही कर्ता-धर्ता है, तो फिर कुछ क्षण के लिए उग कर ढल क्यों जाता है? चँद्रमा जीव-जगत को शीतलता प्रदान कर्ता है और फिर यही प्रश्न दोहराया कि वह केवल अँधकार में ही मार्ग दर्शक क्यों बनता है।
मुझको, अर्थार्त ईश्वर को पूजने वाला उन्ही में विलीन हो जाता है तथा जीवन-मरण के चक्र से मुक्त हो जाता है| |
संघर्ष की यह श्रंखला कई सदियों तक मनुष्य के मानसिक स्थल को झंझोड़ती रही। ऋषि-मुनियों ने अपने तपोबल से ज्ञान और ईश्वर के सत्य की अनुभूति प्राप्त की। हमारे ऋषि,मुनियों ने ही मानव जाति को विभिन्न प्रकार से इन तथ्यों से अवगत कराया।
वृक्ष कितना भी विस्तृत हो जाए; उसकी शाखाएँ उसकी जड़ों से सदैव ही जुडी रहती हैं। शाखाओं को जड़ से भिन्न समझना मनुष्य की संकुचित सोच का परिचय है। गीता के उपदेशों को आधार मानकर, यदि सब धर्मों का अध्ययन किया जाए तो यह स्पष्ट होता है कि सब धर्मों का मूल और आधार एक ही है। बिल्कुल उस पेड के तने की तरह, जिसकी शाखाएँ कितनी भी दूर तक क्यों ना फैली हों, परंतु अपने अस्तित्व और मूल से अलग नहीं रह सकती।
सनातन धर्म
सनातन धर्म का इतिहास सबसे प्राचीन है। इस धर्म को वेदकाल से भी पूर्व का माना जाता है, क्योंकि वैदिक काल और वेदों की रचना का काल अलग-अलग माना जाता है। यहां शताब्दियों से मौखिक (तु वेदस्य मुखं) परंपरा चलती रही, जिसके द्वारा इसका इतिहास व ग्रन्थ आगे बढ़ते रहे। उसके बाद इसे लिपिबद्ध (तु वेदस्य हस्तौ) करने का काल भी बहुत लंबा रहा है। सनातन धर्म के सर्वपूज्य ग्रन्थ हैं वेद। वेदों की रचना किसी एक काल में नहीं हुई। विद्वानों ने वेदों के रचनाकाल का आरंभ २००० ई.पू. से माना है। यानि यह धीरे-धीरे रचे गए और अंतत: पहले वेद को तीन भागों में संकलित किया गया: ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद जिसे वेदत्रयी कहा जाता था। कहीं कहीं ऋग्यजुस्सामछन्दांसि को वेद ग्रंथ से न जोड़ उसका छंद कहा गया है। मान्यता अनुसार वेद का विभाजन राम के जन्म के पूर्व पुरुंरवा राजर्षि के समय में हुआ था। बाद में अथर्ववेद का संकलन ऋषि अथर्वा द्वारा किया गया। वहीं एक अन्य मान्यता अनुसार कृष्ण के समय में वेद व्यास कृष्णद्वैपायन ऋषि ने वेदों का विभाग कर उन्हें लिपिबद्ध किया था। मान्यतानुसार हर द्वापर युग में कोई न कोई मुनि व्यास बन वेदों को ४ भागों में बाटते हैं।
सनातन धर्म की उत्पत्ति पूर्व आर्यों की अवधारणा में है जो ५००० ई.पू. मध्य एशिया से हिमालय तक फैले थे, इसमें भी डॉ मुइर जैसे वैज्ञानिकों में मतभेद हैं। कहते हैं कि आर्यों की ही एक शाखा ने अविस्तक धर्म की स्थापना भी की। इसके बाद क्रमशः यहूदी पंथ २००० ई.पू., बौद्ध पंथ और जैन पंथ ५०० ई.पू., ईसाई पंथ सिर्फ २००० वर्ष पूर्व, इस्लाम पंथ आज से १४०० वर्ष पूर्व हुआ।
धार्मिक साहित्य अनुसार सनातन धर्म की कुछ और भी धारणाएँ हैं। रामायण, महाभारत और पुराणों में सूर्य और चंद्रवंशी राजाओं की वंश परम्परा का उल्लेख उपलब्ध है। इसके अलावा भी अनेक वंशों की उत्पति और परम्परा का वर्णन आता है। उक्त सभी को इतिहास सम्मत क्रमबद्ध लिखना बहुत ही कठिन कार्य है, क्योंकि पुराणों में उक्त इतिहास को अलग-अलग तरह से व्यक्त किया गया है जिसके कारण इसके सूत्रों में बिखराव और भ्रम निर्मित जान पड़ता है, फिर भी धर्म के ज्ञाताओं के लिए यह भ्रम नहीं है, वो इसे कल्पभेद से सत्य मानते हैं। सनातन शास्त्र ग्रंथ याद करके रखे गए थे। यही कारण रहा कि अनेक आक्रमण जैसे नालंदा आदि के प्रकोप से भी अधिकतर बचे रहे। इनकी कुछ मिथ़ॉलजि जैसी बातों को आधुनिक दुनिया नहीं मानती तो कुछ सत्य प्रतीत होने वाली बातों को मानतीं भीं हैं।
सनातन धर्म शास्त्र, ग्रंथ पढ़ें तो ऋषि-मुनियों की परम्परा के पूर्व मनुओं की परम्परा का उल्लेख मिलता है, जिन्हें जैन धर्म में कुलकर कहा गया है। ऐसे क्रमश: १४ मनु माने गए हैं जिन्होंने समाज को सभ्य और तकनीकी सम्पन्न बनाने के लिए अथक प्रयास किए। धरती के प्रथम मानव का नाम स्वयंभू मनु था और प्रथम स्त्री सतरुपा थी महाभारत में आठ मनुओं का उल्लेख है। इस वक्त धरती पर सातवें मनु वैवस्वत की ही संतानें हैं। आठवें मनु वैवस्वत के काल में ही भगवान् विष्णु का मत्स्य अवतार हुआ था। सनातन धर्म की कालमापनी सबसे बड़ी है। पुराणों में सनातन धर्म का आरंभ सृष्टि उत्पत्ति से ही माना जाता है। ऐसा कहना कि यहाँ से शुरुआत हुई यह शायद उचित न होगा फिर भी सनातन इतिहास ग्रंथ महाभारत और पुराणों में मनु (प्रथम मानव) से भगवान् कृष्ण की पीढ़ी तक का उल्लेख मिलता है।
हालांकि इतिहासकारों की मानें तो सनातन धर्म का प्रारम्भ सिन्धु घाटी की सभ्यता (५००० वर्ष पूर्व) समानांतर/ उपरांत से कहा जाता है, वहीं ग्रंथों में लिखित दस्तावेज़ इससे कहीं आगे की बात करते हैं। इसके साथ ही अनेक साक्ष्य कभी कभी इतिहासवेत्ताओं के पसीने छुड़ा देते हैं। उदाहरणार्थ सन् २०१९ में प्राप्त श्रीराम के ६००० वर्ष प्राचीन भित्तिचित्र जो ईराक में मिले, साथ ही कल्प विग्रह नामक शिव प्रतिमा जिसकी कार्बन डेटिंग आयु २८,४५० (२०१९) वर्ष आंकी गई थी। ये सारे प्रमाण सनातन धर्म को कहीं अधिक प्राचीन बनाते हैं।
सनातन धर्म – श्री चैतन्य महाप्रभु द्वारा उपदेशित वैष्णवों की जीवनचर्या
(वेद से सनातन धर्म के विषय में) कलयुग-पावनावतार श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु श्री श्री राधा-कृष्ण के मिलित विग्रह हैं। आप स्वयं भगवान् श्री कृष्ण हैं और श्रीराधा-प्रेम का आस्वादन करने हेतु इस पृथ्वीतल पर अवतार ग्रहण करते हैं।
आप स्वयं कृष्णरूप में श्री राधा के भाव को अंगीकार करके श्रीराधा के आनन्द का आस्वादन करते हैं। इस आस्वादन के साथ-साथ अपने कलिहत जीवों को जो एक महा वरदान प्रदान किया – वह है ‘श्रीहरिनाम-संकीर्तन’, इसलिये आपको “संकीर्तनैकपिता” कहा गया है। नाम-ग्रहण या हरिनाम-संकीर्तन कोई ऐसी नयी चीज या नया साधन नहीं था, जिसका उन्होंने आविष्कार किया हो, अपितु उन्होंने विभिन्न वैदिक पौराणिक, विशेषत: श्रीमद्गवतादि महापुराण-ग्रंथों का आधार लेकर सभी का ध्यानाकर्षन किया कि कलयुग में श्रीहरिनाम-संकीर्तन एवं श्रीहरिनाम का आश्रय ही जीव का परम धर्म है, और जीव के लिए परम मंगलकारी है। यह सब साधनों में श्रेष्ठ साधन शिरोमणि है और इस श्रीराम-संकीर्तन द्वारा श्री हरि को अथवा श्रीहरि की प्रेमभक्ति को अति सहजता से प्राप्त किया जा सकता है:
कलौ केशवकीर्तनात् – श्री महाप्रभु का अनुयायी ही नहीं जीवमात्र उस परम् प्रभु सत्-चित- आनन्दधन का अंश है। प्रभु स्वयं सत् है, चित् है और आनन्द् धन का विग्रह है। धन का अर्थ है कि वे इससे ओत-प्रोत हैं और यह जीव उन्ही का ही अंश है और उनकी अनेक शक्तियों में-से एक “तटस्थाशक्ति” है। उनका वंश होने के कारण उनके इन तीनों गुणों का कुछ अंश इस जीव में भी मौजूद है ही। जैसे एक आम में जो स्वाद, जो गुण, जो रंग, जो मिठास होती है, बिलकुल वही स्वाद आदि उस आम की एक फाँक या टुकड़े में भी होता है, क्योंकि वह टुकड़ा उसी का अंश है।
सत्-चित्-आनन्द
प्रभु में सत्-चित्-आनन्द अनन्त मात्रा में, लेकिन जीव में यह सीमित मात्रा में है। साथ ही अंश का यह स्वाभाविक गुण होता है कि वह अपने अंशों की और आक्रष्ट होता है और उसे प्राप्त कर परम सुख-शांति को प्राप्त करता है। यही बात हमारे साथ है। हम यदि चिन्तन करें कि हम क्या चाहते हैं, तो हम वास्तव में आनंद चाहते हैं। यह अलग बात है कि किसी व्यक्ति ने अपने आनन्द को धन में स्थापित किया हुआ है, किसी ने पुत्र-पत्नी आदि में, किसी ने सुस्वादु भोजन, मदिरादि में और किसी अन्य ने सांसरिक मोह /माया में।
लेकिन इन सांसरिक मोह,माया में लौकिक वस्तुओं तथा परिस्थितियों में जो आनंद है, वह क्षणिक है, यह स्थायी नहीं है। वह प्रेय तो हो सकता है, लकिन श्रेय नहीं।
चार पुरुषार्थ
अब प्रश्न उठता है कि श्रेय क्या है, जो हमारे लिए हितकारी हो? इसके लिये शास्त्रों में चार पुरुषार्थों का वर्णन है।वे चार पुरषार्थ हैं-
धर्म |
अर्थात् मौलिक स्वभाव। जैसे अग्नि का धर्म है जलाना, पुत्र का धर्म है पिता की आज्ञा का पालन करना, कर्मचारी का धर्म है मालिक का हित करना और साथ ही जीव मात्र का धर्म है अपने प्रभु की सेवा करके उन्हें संतुष्ट करना – ‘जीवेर स्वरूप ह्य नित्य क्रष्णादस’ |
अर्थ |
अर्थात् न्यायपूर्वक धर्मपूर्वक अर्थ का उपार्जन करना। एक कर्मचारी अपने मालिक का हित करते हुए तनख्वाह लेता है तो वह धर्मपूर्वक अर्जित अर्थ है। रिश्वत लेकर मालिक का अहित करके जो तनख्वाह लेता है, वह अन्याय और अधर्मपूर्वक अर्जित है। |
काम |
अर्थात् धर्म का पालन करते हुए अर्जित धन से अपनी उचित कामनाओं, जैसे शरीर रक्षा हेतु भोजन, परिवार का पालन-पोषण आदि अन्य उचित कामनाओं की पूर्ति करना। |
मोक्ष |
इन कामनाओं की पूर्ति करते हुए अन्य-अन्य कामनाओं से मुक्त होकर, अनासक्त होकर, उस परम प्रभु अपने अंश को प्राप्त कर संसार में पुन:-पुन: आवागमन से मुक्त हो जाना अर्थात् मोक्ष को प्राप्त करना। |
मरने की कला
महर्षि संदीपन ॠषि कहते हैं कि अपने जीवन में मनुष्य केवल ३ पदार्थों को प्राप्त कर सकता है – धर्म, अर्थ और काम, लेकिन मोक्ष की प्राप्ति मनुष्य को तभी हो सकती है जब उसे मरने की कला आती हो। इस कला को आगे विस्तार से बताते हुए कहते हैं, अंतिम समय में प्राणी मोह-माया का त्याग कर, श्री हरि के चरणों का ध्यान करे, तो अवश्य ही उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है, वास्तव में यही वो मरने की कला है। इस कला को सीखना या पालन करना सरल है क्योंकि जीव तो जीवन भर सांसारिक उलझनों में फंसा रहता है, उसके पास श्री हरि को याद करने का समय ही नहीं है। इसलिए प्राणी को चाहिय कि वह अपनी दैनिकचर्या में कुछ समय निकाल कर अपना सब कुछ भुला कर श्री हरि के चरणों में ध्यान लगाये।
ऊपरोक्त विषय से निष्कर्ष निकलता है कि मनुष्य को विचारों का शुध्दिकर्ण कर अपने भाव भक्ति के मार्ग को प्रशस्त कर आत्म शुध्दि की ओर अग्रसर होना चाहिए, जिससे उसका कल्याण हो सके।
इन चार पुरुषार्थों के अतिरिक्त श्री चैतन्य महाप्रभु ने एक पंचम पुरुषार्थ “प्रेम” का परिचय जीवजगत् को दिया; क्योंकि अपने प्रभु को प्राप्त कर आवागमन से मोक्ष या मुक्त होना तो कहा गया, लेकिन अपने प्रभु को प्राप्त कैसे करें? प्रभु-प्राप्ति का वास्तविक अर्थ क्या है? प्रभु को प्राप्त करने का सरल सहज-सनातन साधना क्या है? इसका परिचय महाप्रभु ने जीवजगत को दिया, जो कि महाप्रभु के अनुयायी ही नहीं, अपितु सभी के लिए एक जीवनचर्या बन गया। महाप्रभु के अनुयायियों के लिए तो वह जीवतु (जीवनदायक औषधि ) ही है।
हमें भगवान् की प्राप्ति नहीं करनी है; क्योंकि भगवान्-प्राप्ति तो रावण, कंस एवं अन्य दैत्य आदि को भी हुई थी। उन्होंने प्रभु को साक्षात् अपने आमने-सामने देखा। चाणूर-मुष्टिक नामक मल्लों ने तो कुश्ती में अंग-से-अंग मिलाकर उनकी प्राप्ति की। हमें उनकी प्राप्ति मात्र नहीं, हमें उनके प्रेम की प्राप्ति करनी है। । “भज् सवयम्” – भज् धातु सेवा अर्थ में प्रयुक्त होता है। सेवा यानी उनका सुख-सम्पादन। जी हाँ, केवल उनका ही सुख-सम्पादन, अपना नहीं।
क्रष्णेन्द्रिय सुख वासना तारे बिल ‘प्रेम’।
आत्मन्द्रिय सुख वासना तारे बिल ‘काम’।
‘काम’ और ‘प्रेम’
‘काम’ और ‘प्रेम’ में यही मौलिक अंतर है। श्री कृष्ण के सुख के लिये लाया गया प्रयास ‘प्रेम’ है और अपने सुख के लिये किया गया प्रयास ‘काम’ या कामना है। वैसे भी ‘प्रेम’ के एकमात्र विषय श्री कृष्ण ही हैं। अर्थात् यदि श्री कृष्ण से प्रेम है तो वह है ‘प्रेम’ और यदि किसी अन्य से है – माता से है, पिता से है, मित्र से है, पत्नी से है, प्रेमी या प्रेमिका से है, तो वह प्रेम नहीं ‘काम’ ही है। प्रेम यदि हो सकता है तो वह केवल श्रीकृष्ण से ही हो सकता है।
प्रेम और भक्ति पर्यायवाची
इस प्रेम को भक्ति के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है, या यों कहिये कि ये दोनों पर्यायवाची हैं, और इसके लिये महाप्रभु के परिकरभूत गोस्वामिगणों ने चोंसठ प्रकार की भक्ति का उद्घोष किया। श्रीभक्तरसामृतसिन्धु ग्रन्थ की रचना द्वारा श्री रूप गोस्वामीपादने भक्ति को एक रस रूप में प्रस्थापित किया। भक्ति के सदातनत्व अर्थात् भक्ति सर्व देशों में, सर्व अवस्थाओं में, सर्व-समय में, सभी युगों में, सभी परीस्थितियों में की जा सकती है। यह निरपेक्ष है – इसके लिये किसी विशेष देश, काल, आयु, परीस्थिति की आवश्यकता नहीं है। यही भक्ति समस्त श्री चैतन्य अनुयायों की जीवनचर्या है। भक्ति के चोंसठ अंगों में भीर नवविधा भक्ति का वर्णन किया गया है: नवविधा भक्ति ‘नाम’ हैते पूर्ण हय।
यह नवविधा भक्ति श्रीहरि नाम-संकीर्तन, श्रीहरि नाम-स्मरण से पूर्ण होती है और आत सम्भवतः शायद ही ऐसा कोई श्री चैतन्य महाप्रभु का अनुयायी होगा जो श्रीराम का येन केन प्रकारेण आश्रय नहीं लेता होगा; क्योंकि श्रीनाम-जप-स्मरण ही उनकी जीवनचर्या है। उनका जीवतु है और भगवद्-प्रेम-प्राप्ति ही उनके जीवन का परम लक्ष्य है।
श्री महाप्रभु के उपदेश का अर्थ
श्रीहरिप्रभु के आश्रय से थोडा इधर-उधर जायें तो भी श्रीमहाप्रभु के उपदेश के सार का निम्न सारांश है:
नामे रुचि जीवे दया वैष्णव सेवन।
गोर मते धर्मसार करी आचरन।।
श्रीहरि नाम में उत्कट रूचि, जीवों पर दया। दया अर्थात् मायाग्रस्त जीवों की दुर्दशा देखकर-जानकर उन्हें येंन-केन-प्रकारेण भगवदून्मुख करना-यही जीवों पर वास्तविक दया है। यह और बात है कि भगवदून्मुख करने के लिये उस पर कुछ अन्य दया भी कर दी जाय और अगली बात जो है-वह अति महत्वपूर्ण है-वह है वैष्णव-सेवा। अर्थात् जिसकी जिसकी करनी है, उसका वैष्णव होना आवश्यक है। यहाँ मानव या मानवता की सेवा की बात नहीं कही है। मानव यदि आलसी है, मानव यदि शराबी है तो उसकी सेवा नहीं करनी, उस पर दया करनी चाहिए। और दया भी यही कि वह किसी भी प्रकार से इन झंझटों से छूटकर भगवद भक्ति की ओर उन्मुख हो जाय-वैष्णव बन जाये। वैष्णव बनने पर हम वैष्णव की सेवा करेंगे और वैष्णव भगवान् की सेवा करेगा, तो हमारे सेवा अन्ततोगत्वा ठाकुर की ही सेवा हो जाएगी। उपदेश कुछ भी हो, कैसा भी हो, उसके केंद्र में भक्ति, भगवद् सेवा ही है। श्री चैतन्य महाप्रभु के मतानुसार सर्वधर्मों का यही सार है। इसी का आचरण करना विधेय है, और यही श्री चैतन्य महाप्रभु के अनुयायी वैष्णवों की जीवनचर्या है:
।। अमातिना मानदेव कीर्तनीय: सदा हरि: ।।
आदर्श जीवन में कर्म और विश्वास
कर्म और विश्वास जीवन-रथ के दो पहिए हैं, जिन्हें साथ-साथ घूमना है। यदि जीवन रूपी रथ का एक पहिया भी टूट जाता है, तो जीवन रूपी रथ को आगे बढ़ने में सफलता नहीं मिलेगी। कर्म और विश्वास को एक साथ लेकर चलने की आवश्यकता है। ना तो कर्म प्रधान है, ना ही विश्वास प्रधान है।
सनातन धर्म में एक ईश्वर, परलोक, आत्मा, देवताओं में और भाग्य में विश्वास रखते हैं, ईश्वरीय ग्रंथ गीता, पुराण, वेदों पर श्रद्धा रखते हैं और जो ऋषि उनको समझाने के लिए भगवान् भेजता है, पर श्रद्धा रखना।
गीता अध्याय ५ श्लोक २९:
भोक्तारं यज्ञतपसाम् सर्वलोक महेश्वरम्।
सुहृदं सर्व भूतानाम ज्ञात्वामाम शांति मृच्छति।।
जो मुझे यज्ञ और तप का फल देने वाला, सारे लोकों में सबसे श्रेष्ठ, निर्मित वस्तुओं पर दया करने वाला मानता है, वह शांति, सुख को प्राप्त करता हैऔर ब्रह्म के सिवा उसकी दृष्टि में कुछ भी नहीं रहता।
गीता अध्याय २ शलोक ४७:
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ।।
तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फलों में नहीं, इसलिए तू फल की दृष्टि से कर्म मत कर और तेरी कर्म न करने में भी प्रीति न होवे।
भगवद् गीता:अध्याय १८ श्लोक ६६:
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच:।।
सब धर्मों को अर्थात् संपूर्ण कर्मों के आश्रय को त्याग कर केवल एक मुझ सच्चिदानंदघन वासुदेव परमात्मा की अनन्य शरण को प्राप्त हो, मैं तेरे को संपूर्ण पापों से मुक्त कर दूंगा, तू शोक मत कर।
मेरा परम प्रिय भक्त केवल वो है जो मुझे अंतर्मन से जानता-समझता है, मुझे एक सर्वशक्तिमान, अपना स्वामी मानते हुए, निःस्वार्थ एवं निष्काम, बिना किसी संकल्प के, मेरे परायण में विचरण करता है।
सनातन धर्म में 1 वर्ष में लगभग 30 दिन उपवास और ईश्वरीय वंदना में मस्त रहना।
पुण्य कमाई का 10% हिस्सा दान करना, गरीब लड़कियों की शादी करना, दीनों की सहायता करना, शिक्षा, स्वस्थ्य एवं धार्मिक कार्यों में सहयोग देना, तीर्थ यात्रा करना।
सिख धर्म में आदर्श जीवनचर्या का रूप
सिख धर्म का इतिहास प्रथम सिख गुरु, गुरु नानक के द्वारा 15 वीं सदी में भारत के पंजाब क्षेत्र में आ़ग़ाज हुआ। सिख धर्म सनातन धर्म की एक सेना के रूप में भी समझा जा सकता है। इसकी धार्मिक परंपराओं को गुरु गोबिद सिंह ने 30 मार्च 1699 के दिन अंतिम रूप दिया। विभिन्न जातियों के लोगों ने सिख गुरुओं से दीक्षा ग्रहण कर ख़ालसा पंथ को सजाया। सिख धर्म सनातन धर्म की एक सेना है। पांच प्यारों ने फिर गुरु गोबिद सिंह को अमृत देकर ख़ालसा में शामिल कर लिया। इस ऐतिहासिक घटना ने सिख धर्म के तक़रीबन पाँच सौ साल इतिहास को तरतीब किया।
सिख शब्द ‘शिष्य’ शब्द से उत्पन्न हुआ। सिख का अर्थ उस परमपिता का शिष्य। सिख धर्म की सबसे बड़ी विशेषता यह है, कि एक ही सिख में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र – चारो के गुणों को इकट्ठा कर दिया गया है। सिख गुरुओं का प्रत्येक सिख के लिए आदेश है कि वह निरंतर हरिनाम श्रीवाहेगुरु का जप करे, तलवार लेकर अपने देश और धर्म की रक्षा करे, अपनी गृहस्थी के निर्वाह के लिये सत्यव्यवहार करे और आठों पहर दूसरों की सेवा के लिये तन, मन, और धन से तत्पर रहे।
आदर्श जीवनचर्याए: व्यक्तिगत जीवन में यह भी ज़रूरी है कि प्रत्येक सिख ब्रह्मवेला में उठ कर नित्यक्रिया से निवृत होकर, स्नान करे तथा नितनेम वाणी जपुदादि, जपुजी, सवैया सुखमनी आदि का पाठ करे। सोदर सहरासे की वाणी का पाठ शाम को सूर्यास्त के बाद और सोहिमा का पाठ रात को सोने से पहले करना ज़रूरी है। वाणीयों के पाठ करने के बाद खड़े होकर अरदास (प्रार्थना) करना ज़रूरी है। अरदास एक ओंमकर से शुरू होकर ‘नानक नाम चढ़दी कला तेरे पाणे सरबत का भला’, पर समाप्त होती है, इसमें पूरी मानवजाति की भलाई की बात होती है। जिसमें विश्व बंधुत्व की छाप रहती है।
श्री गुरुग्रंथसाहिब सर्वोपरि है: सिख धर्म में गुरु गोविन्दसिंह जी महाराज की आज्ञा के अनुसार श्रीगुरु ग्रंथसाहिब सर्वोपरि है, यही सब कुछ है। इस श्रीग्रंथ साहिब के आगे हर आदर्श सिख का माथा टेकना जरूरी है।
प्रत्येक सिख के आदर्श जीवन का यही मूल सिद्धांत है – नाम जपो, किरत करो तथा वंड छको अर्थात् हमेशा प्रभु का नाम जपो, जीवन – व्यवस्था में मेहनत ईमानदारी से काम करो और अपनी कमाई का दसवाँ हिस्सा ज़रुरतमंदों में बांटो – लंगर की सेवा करो आदि। आज इसी का फल है कि गुरूद्वारे में कीर्तन – भजन ज़रूर होता है। सिख लोग ईमानदारी और परिश्रम से काम करते हुए अपनी कमाई का दसवाँ हिस्सा लंगर के लिए दान करते हैं और गुरुद्वारों में गुरु का लंगर हमेशा चलता रहता है। जहाँ किसी भी धर्म के लोग जाकर लंगर छक(खा) सकते हैं। प्रत्येक सिख के जीवन में गुरु, गुरुद्वारा, गुरुवाणी का महत्व आज भी देखने को मिलता है। सिख धर्म में दस गुरु हैं पर ज्योति एक ही है। जीवन के अंतिम समय में श्रीगुरु गोविन्दसिंह जी ने कार्तिक दी दूज 1708 ई0 में श्रीहजूर साहिब नांदेड़ महाराष्ट्र में परलोक – गमन के पहले श्रीगुरु ग्रंथसाहिब के सामने नारियल और पाँच पैसे रखकर माथा टेकते हुए प्रदक्षिणा की और आज्ञा दी:
आज्ञा भई अकाल की तभी चलायो पंथ।
सब सिखन को हुकुम है गुरु मानियो ग्रंथ।।
गुरु ग्रंथजी मानियो प्रकट गुरु की देह।
जो प्रभु को मिलनो चहै खोज शबद में लेह।।
सिख धर्म में इसी प्रकार निम्न पंक्तियाँ उल्लेखित हैं:
एक ओंकार |
ईश्वर एक है |
सतनाम |
उसका नाम ही सत्य है |
करता पुरख |
यह संसार उसी ने बनाया है |
निर्भय |
उसे किसी का डर नहीं |
निरबैर |
उसे किसी से बैर नहीं |
अकाल मूर्त |
वो अमर है |
अजूनी मसो भंग |
ना वो पैदा होता है ना उसकी म्रत्यु होती है |
इसी प्रकार निःसंदेह यह ज्ञात होता है कि मूलतः सभी धर्म एक ही बात सिखाते हैं – कि ईश्वर एक है तथा उसी में मनुष्य का उद्धार होता है।
ब्रह्म क्या है
ब्रह्म परब्रह्म का वह अंश है जो कि प्रत्येक जीव के अंदर रहता है और मनुष्य की अलग-अलग नियति अनुसार वह मनुष्य को परब्रह्म से मिलवाने में सहायता करता है। जिस प्रकार गंगा माता शंकर भगवान् की जटाओं से निकलती जरूर है लेकिन उसकी नियति समुद्र में मिल जाने की है उसी प्रकार संतान को माता-पिता से दूर जाकर ही अपने लक्ष्य को पाना होता है।
समुद्र मंथन – विष और अमृत
विष
देवताओं और राक्षसों द्वारा समुद्र मंथन ने समस्त सांसारिक मनुष्यों, सभी धर्मों, को बड़ी शिक्षा दी है। इस संसार के सभी प्राणियों को क्रोध, बुराई, अधर्म, अनाचार रूपी विष को पीना चाहिए, साथ ही समस्त समाजों को एक दूसरे के धर्म के प्रति सत्य, त्याग और क्षमा रूपी आदेशों का पालन करना चाहिए; सागर मंथन होने पर देवता और राक्षस अहंकार के वशीभूत विष पीने को तैयार नहीं हुए, तब स्वयं भगवान् शंकर जी ने यह विष पीकर संसारिक प्राणियों को यह शिक्षा दी कि कड़वे पदार्थ को भी (कड़वे वचनों को) समाज कल्याण हेतु ग्रहण करना चाहिए।
अमृत
किसी भी समस्या का हल सांप्रदायिकता से नहीं अपितु समस्त समाज को एक साथ मिल बैठकर निकालना चाहिए। किसी भी समस्या का हल सब धर्म के प्राणियों को आपस में मिलकर संगठित होकर निकालना चाहिए, जिससे कि किसी को तकलीफ नहीं हो और सभी धर्म एक-दूसरे का आदर करते हुए, आपसी भाईचारा स्थापित करेंगे, यही सच्चा अमृत है, सच्चा ज्ञान है। क्योंकि:
मनुष्य से धर्म बनता है।
धर्म से मनुष्य नहीं।।