वैकुण्ठ लोक
सनातन मोक्ष का उपाय
परब्रह्म स्वरूप शिव रूप सबके करता स्वामी दैव्तरहित भगवान् हैं। भगवान् के अंश से यह जीव संज्ञक प्राणी बना है। जैसे अग्नि में चिंगारियां उठती हैं, वैसे ही अनादि अविद्या से अपहत होकर जीव अनादि कर्मों से देह प्राप्त करता है।
हजारों बार चार प्रकार के शरीरों को धारण कर-करके छोड़ता हुआ अच्छे कर्मों से मनुष्य होकर जो ज्ञानी होता है, वह मोक्ष को प्राप्त होता है।
धर्म से ज्ञान और ज्ञान से ध्यान और ध्यान से योग को प्राप्त होकर जीव आवागमन से मुक्त हो जाता है।
मोक्ष का कारण तो केवल तत्वज्ञान ही है। जैसे लकड़ी के हजारों गट्ठों में एक ही संजीवनी बूटी श्रेष्ठ होती है, वैसे ही सद्-गुरु की वाणी ही मुक्ति को देने वाली है। सद्-गुरु के मुखारविंद से वह मिल सकता है, जो करोड़ों शास्त्रों के पढ़ने से नहीं मिलता। मनुष्य तन नौका रूपी जानकर गुरु को मांझी के समान समझना चाहिए। ‘मेरी नहीं है‘ और ‘मेरी है‘, यही दो पद मोक्ष और बंधन के लिए हैं। एक से भव बंधन से दूर जाता है और दूसरे से बंधता है । कर्म वही है, जिससे बंधन ना हो, और विद्या वही है जो मुक्ति देने वाली हो। मन ही बंधन/ मोक्ष का कारण है। जब तक शास्त्र का विचार तथा गुरुकृपा नहीं होती, तब तक तत्वज्ञान नहीं हो सकता।
वैकुंठ
वैकुण्ठ का शाब्दिक अर्थ है जहां कुंठा न हो। कुंठा यानी निष्क्रियता, अकर्मण्यता, निराशा, हताशा, आलस्य और दरिद्रता। कहते हैं कि मरने के बाद पुण्य कर्म करने वाले लोग स्वर्ग या वैकुंठ जाते हैं। हालांकि वेद यह नहीं कहते हैं कि मरने वे बाद लोग स्वर्ग या वैकुंठ जाते हैं। वेदों में मरने के बाद की गतियों के बारे में उल्लेख मिलता है और मोक्ष क्या होता है इस पर ही ज्यादा चर्चा है। खैर, हम आपको पुराणों की धारणा अनुसार बताना चाहेंगे कि वैकुंठ धाम कहां है और वह कैसा है।
भगवान् विष्णु का आवास। भगवान् विष्णु जिस लोक में निवास करते हैं उसे बैकुण्ठ कहा जाता है। सरल शब्दों में बैकुण्ठ धाम जगतपालक भगवान् विष्णु की दुनिया है। वैसे ही, जैसे कैलाश पर महादेव व ब्रह्मलोक में ब्रह्माजी निवास करते हैं। इसके कई नाम हैं – साकेत, गोलोक, परमधाम, परमस्थान, परमपद, परमव्योम, सनातन आकाश, शाश्वत-पद, ब्रह्मपुर। शास्त्रों के अनुसार बहुत ही पुण्य से मनुष्य को इस लोक में स्थान मिलता है। जो यहां पहुंच जाता है वह पुनः गर्भ में नहीं आता क्योंकि उसे मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है। अध्यात्म की नजर से बैकुण्ठ धाम मन की अवस्था है। बैकुण्ठ कोई स्थान न होकर आध्यात्मिक अनुभूति का धरातल है। जिसे बैकुण्ठ धाम जाना हो, उसके लिए ज्ञान ही उम्मीद की किरण है। इससे वह ईश्वर के स्वरूप से एकाकार हो जाता है। लेकिन जिसके भीतर परम ज्ञान है, भगवान् के प्रति अनन्य भक्ति है, वे ही बैकुण्ठ पहुंच सकते हैं।
संसार में चाह/ कामना सबको दुख देती है, उसी तरह स्वर्ग में भी तीन वस्तुएं: दूसरे को अपने से ऊंचे सिंहासन पर बैठे देखकर ईर्ष्या करना, अपने बराबर बैठने वाले से विरोध करना और नीचे बैठने वालों को अभिमान की राह छोटा समझना, दुख देने वाला है। जो मनुष्य संसारी सुख व स्वर्ग की चाह न रखकर हरि चरणों में ध्यान लगाए रहता है, वह महाप्रलय तक मेरे साथ बैकुंठ में सुख भोग कर दूसरा जन्म नहीं पाता। जो लोग मुझे ईश्वर जानकर एक बार भी सच्चे मन से मेरा स्मरण व ध्यान करते हैं, वे मुझ को कभी नहीं भूलते। हरिचरणों का ध्यान करने से मनुष्य अंत:करण शुद्ध कर वैकुंठ जाता है।
वैकुंठ धाम कहां है?
सनातन धर्म के अनुसार कैलाश पर महादेव, ब्रह्मलोक में ब्रह्माजी निवास करते हैं। उसी तरह भगवान् विष्णु का निवास वैकुंठ में बताया गया है। धरती पर, समुद्र में, और स्वर्ग के ऊपर। वैकुंठ को विष्णुलोक और वैकुंठ सागर भी कहते हैं। भगवान् श्रीकृष्ण के बाद इसे गोलोक भी कहने लगे। चूंकि श्रीकृष्ण और विष्णु एक ही हैं, इसीलिए श्रीकृष्ण के निवास स्थान को भी वैकुंठ कहा जाता है।
धरती पर बद्रीनाथ, जगन्नाथ और द्वारिकापुरी को भी वैकुंठ धाम कहा जाता है। चारों धामों में सर्वश्रेष्ठ हिन्दुओं का सबसे पावन तीर्थ बद्रीनाथ, नर और नारायण पर्वत श्रृंखलाओं से घिरा, अलकनंदा नदी के बाएं तट पर नीलकंठ पर्वत श्रृंखला की पृष्ठभूमि पर स्थित है। भारत के उत्तर में स्थित यह मंदिर भगवान् विष्णु का दरबार माना जाता है। बद्रीनाथ धाम में सनातन धर्म के सर्वश्रेष्ठ आराध्य देव श्री बद्रीनारायण भगवान् के 5 स्वरूपों की पूजा-अर्चना होती है। विष्णु के इन 5 रूपों को ‘पंच बद्री‘ के नाम से जाना जाता है। श्री विशाल बद्री, श्री योगध्यान बद्री, श्री भविष्य बद्री, श्री वृद्ध बद्री और श्री आदि बद्री।
बद्रीनाथ के अलावा द्वारिका और जगन्नाथपुरी को भी वैकुंठ धाम कहा जाता है। कहते हैं कि सतयुग में बद्रीनाथ धाम की स्थापना नारायण ने की थी। त्रेतायुग में रामेश्वरम् की स्थापना स्वयं भगवान् श्रीराम ने की थी। द्वापर युग में द्वारिकाधाम की स्थापना योगीश्वर श्रीकृष्ण ने की और कलयुग में जगन्नाथ धाम को ही वैकुंठ कहा जाता है। पुराणों में धरती के बैकुंठ के नाम से अंकित जगन्नाथ पुरी का मंदिर समस्त दुनिया में प्रसिद्ध है। ब्रह्म और स्कंद पुराण के अनुसार पुरी में भगवान् विष्णु ने पुरुषोत्तम नीलमाधव के रूप में अवतार लिया था।
दूसरा वैकुंठ धाम
दूसरे वैकुंठ की स्थिति धरती के बाहर बताई गई है। इसे ब्रह्मांड से बाहर और तीनों लोकों से ऊपर बताया गया है। यह धाम दिखाई देने वाली प्रकृति से 3 गुना बड़ा है। इसकी देखरेख के लिए भगवान् के 96 करोड़ पार्षद तैनात हैं। हमारी प्रकृति से मुक्त होने वाली हर जीवात्मा इसी परमधाम में शंख, चक्र, गदा और पद्म के साथ प्रविष्ट होती है। वहां से वह जीवात्मा फिर कभी भी वापस नहीं होती। यहां श्रीविष्णु अपनी 4 पटरानियों श्रीदेवी, भूदेवी, नीला और महालक्ष्मी के साथ निवास करते हैं।
इसी वैकुंठ के बारे में कहा जाता है कि मरने के बाद विष्णु भक्त पुण्यात्मा यहां पहुंच जाती है। पुराणों के अनुसार इस वैकुंठ की स्थिति हमारे ब्रह्मांड के परे है। जीवात्मा जब उस वैकुंठ की यात्रा करती है, तो उसको विदा देने के लिए मार्ग में सभी 33 कोटि के देवता पहले उसे पुन: किसी योनि में धकेलने का प्रयास करते हैं या वैकुंठ जाने देने से रोकते हैं। लेकिन जो जीवात्मा प्रभु श्रीविष्णु की शरणागति होता है उसको ये सभी एकपाद विभूति के अंतिम सीमा तक जाते हैं और त्रिपाद विभूति के बाहर प्रवाहित होने वाली विरजा नदी के तट पर छोड़ देते हैं।
इसी एकपाद विभूति में हमारा संपूर्ण ब्रह्मांड और सारे लोक अवस्थित हैं। इस एकपाद विभूति की सीमा के बाद शुरू होता है वैकुंठ धाम। पौराणिक मान्यता है कि इसी वैकुंठ धाम और एकपाद विभूति के मध्य विरजा नामक एक नदी बहती है। इस नदी से ही त्रिपाद विभूति शुरू होती है, जो वैकुंठ लोक है। मुक्त होने वाली जीवात्मा को जब सभी देवता विरजा नदी तक छोड़कर जाते हैं तब वह जीवात्मा नदी में डुबकी लगाकर उस पार चली जाती है। उस पार से पार्षदगण उसको सीधे श्रीहरि विष्णु के पास ले जाते हैं। वहां वह उनके दर्शन करके परम आनंद को प्राप्त करता है। इस प्रकार त्रिपाद विभूति में ही वह जीवात्मा सदा के लिए स्थापित हो जाती है। पुराणों में इस वैकुंठ धाम का बड़ा ही रोचक चित्रण किया गया है।
‘हे अर्जुन! अव्यक्त ‘अक्षर‘ इस नाम से कहा गया है, उसी अक्षर नामक अव्यक्त भाव को परमगति कहते हैं तथा जिस सनातन अव्यक्त भाव को प्राप्त होकर मनुष्य वापस नहीं आते, वह मेरा परम धाम है। ।।गीता अध्याय 8, श्लोक 21।।
मुक्ति मार्ग
जहाँ एक तरफ सनातन धर्म के अनुयायी वैकुण्ठ धाम में श्री सत्यनारायण के वास् की कल्पना करते हैं, वहीं कुछ का मानना है कि वैकुण्ठ धाम में एक निराकार ज्योति बिंदु विराजमान है, जिसे हम ब्रह्म ज्योत भी कह सकते हैं। क्यों न हम इस संकल्प से आगे बड़ें, जबकि यह कठिन माना गया है, कि हम इस मृत्युलोक के जंजाल से छूट सकते हैं। यही श्री नारायण हरि हमें इस संसार रूपी चक्र से बचाने के लिए अध्यात्म की ओर ले जाते हुए, इससे मुक्त होने के मार्ग भी दिखाते हैं।
आदरणीय गुरुजी ने अनायास ही हमारे मार्गदर्शन के लिए कुछ विचारणीय शब्द कहे हैं:
भय बिना प्रीति नहीं,
प्रीति बिना श्रद्धा नहीं,
श्रद्धा बिना समर्पण नहीं,
समर्पण बिना विश्वास नहीं,
विश्वास बिना प्रभु प्राप्ति नहीं।।
ऐसी ही परिकल्पना हमारे पूज्य गुरुदेव अपने आत्म चिंतन से करते रहते हैं। ऐसा लगता है स्वयं भगवान् हमें दर्शन देकर ये सब करने की प्रेरणा दे रहे हैं।
मोक्ष का तो अर्थ ही है मोह का क्षय, मोह का नाश है। ज्योंहि मोह आदि विकार नष्ट होंगे, आप अपने मूल स्वरूप में चले जाएंगे। इसलिए संतों के प्रवचन से आपका मूल स्वरूप ही प्रकट होता है। संतों के प्रवचन का अर्थ है, आपको उपयुक्त बना देना। अब आप अपने प्रयास को जारी रख सकते हो। जब आप विकारों से मुक्त हो गए, तो आप ब्रह्म बन गए। प्रयास केवल विकारों के नाश तक ही सीमित है। फिर प्रयास भी शिथिल हो जाता है। प्रयास की कोई आवश्यकता नहीं होती। जैसे कोई कीचड़ में गिर जाए, तो निकलने का प्रयास ठीक है, लेकिन कीचड़ से निकल कर अब क्या प्रयास करेगा। यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि, यही आठ मार्ग हैं जिसे पतंजलि अष्टांग योग कहते हैं।
मोक्ष के मार्ग
मोक्ष का अर्थ जन्म और मरण के चक्र से मुक्त होने अलावा सर्वशक्तिमान बन जाना है। सनातन धर्म में मोक्ष तक पहुंचने के सैंकड़ों मार्ग बताए गए हैं। गीता में उन मार्गों को 4 मार्गों में समेटा है। ये 4 मार्ग हैं:
सनातन धर्म के अनुसार धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष में से मोक्ष प्रत्येक व्यक्ति के जीवन का अंतिम लक्ष्य माना गया है। अधिकतर लोग अर्थ और काम में उलझकर ही मर जाते हैं।
भक्ति: भक्ति भी मुक्ति का एक मार्ग है। भक्ति भी कई प्रकार की होती है। इसमें श्रवण, भजन-कीर्तन, नाम जप-स्मरण, मंत्र जप, पाद सेवन, अर्चन, वंदन, दास्य, सख्य, पूजा-आरती, प्रार्थना आदि शामिल है।
योग: योग अर्थात् मोक्ष के मार्ग की सीढ़ियां। पहली सीढ़ी यम, दूसरी नियम, तीसरी आसन मुद्रा, चौथी प्राणायाम क्रिया, पांचवीं प्रत्याहार, छठी धारणा, सातवीं ध्यान और आठवीं अंतिम सीढ़ी समाधि। अर्थात् मोक्ष। जीव हिंसा व चोरी आदि कुकर्मों से बचे रहकर सच बोलना, गुरु और भगवान् में प्रीति रखकर वेद व शास्त्र का वचन सच जानना, बिना प्रयोजन अधिक न बोलना, यह संयम है। नाम संध्या पूजा, यज्ञ तथा तीर्थ व्रत करना यह नियम समझना चाहिए।
ध्यान: ध्यान का अर्थ शरीर और मन की तन्द्रा को तोड़कर होशपूर्ण हो जाना। ध्यान कई प्रकार से किया जाता है। इसका उद्देश्य साक्षीभाव में स्थित होकर मोक्ष को प्राप्त करना होता है। ध्यान जैसे-जैसे गहराता है, व्यक्ति साक्षीभाव में स्थित होने लगता है।
तंत्र: मोक्ष प्राप्ति का तांत्रिक मार्ग भी है। इसका अर्थ है कि किसी वस्तु को बलपूर्वक हासिल करना। तंत्र भोग से मोक्ष की ओर गमन है। इस मार्ग में कई तरह की साधनाओं का उल्लेख मिलता है। तंत्र मार्ग को वाममार्ग भी कहते हैं। तंत्र को गलत अर्थों में नहीं लेना चाहिए।
ज्ञान: साक्षीभाव द्वारा विशुद्ध आत्मा का ज्ञान प्राप्त करना ही ज्ञान मार्ग है। ईश्वर, ब्रह्मांड, जीवन, आत्मा, जन्म और मरण आदि के प्रश्नों से उपजे मानसिक द्वंद्व को एक तरफ रखकर निर्विचार को ही महत्व देंगे, तो साक्षीभाव उत्पन्न होगा। वेद, उपनिषद और गीता के श्लोकों का अर्थ समझे बगैर यह संभव नहीं।
कर्म और आचरण
कर्मों में कुशलता लाना सहज योग है। भगवान् श्रीकृष्ण ने 20 आचरणों का वर्णन किया है जिसका पालन करके कोई भी मनुष्य जीवन में पूर्ण सुख और जीवन के बाद मोक्ष प्राप्त कर सकता है। 20 आचरणों को पढ़ने के लिए गीता पढ़ें। भाग्यवादी नहीं कर्मवादी बनें। ये है 20 आचरण :
- अमानित्वं: अर्थात् नम्रता
- अदम्भितम: अर्थात् श्रेष्ठता का अभिमान न रखना
- अहिंसा: अर्थात् किसी जीव को पीड़ा न देना
- क्षान्ति: अर्थात् क्षमाभाव
- आर्जव: अर्थात् मन, वाणी एवं व्यव्हार में सरलता
- आचार्योपासना: अर्थात् सच्चे गुरु अथवा आचार्य का आदर एवं निस्वार्थ सेवा
- शौच: अर्थात् आतंरिक एवं बाह्य शुद्धता
- स्थैर्य: अर्थात् धर्म के मार्ग में सदा स्थिर रहना
- आत्मविनिग्रह: अर्थात् इन्द्रियों वश में करके अंतःकरण कों शुद्ध करना
- वैराग्य इन्द्रियार्थ: अर्थात् लोक परलोक के सम्पूर्ण भोगों में आसक्ति न रखना
- अहंकारहीनता: झूठे भौतिक उपलब्धियों का अहंकार न रखना
- दुःखदोषानुदर्शनम्: अर्थात् जन्म, मृत्यु, जरा और रोग आदि में दुःख में दोषारोपण न करना
- असक्ति: अर्थात् सभी मनुष्यों से समान भाव रखना
- अनभिष्वङ्गश: अर्थात् सांसारिक रिश्तों एवं पदार्थों से मोह न रखना
- सम चितः अर्थात् सुख-दुःख, लाभ-हानि में समान भाव रखना,
- अव्यभिचारिणी भक्ति: अर्थात् परमात्मा में अटूट भक्ति रखना एवं सभी जीवों में ब्रम्ह के दर्शन करना
- विविक्तदेशसेवित्वम: अर्थात् देश के प्रति समर्पण एवं त्याग का भाव रखना,
- अरतिर्जनसंसदि: अर्थात् निरर्थक वार्तालाप अथवा विषयों में लिप्त न होना,
- अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं: अर्थात् आध्यात्मिक ज्ञान के लिए हमेश प्रयत्नशील रहना,
- आत्मतत्व: अर्थात् आत्मा का ज्ञान होना, यह जानना कि शरीर के अंदर स्थित मैं आत्मा हूं शरीर नहीं।
भगवान् श्री कृष्ण कहते हैं आत्म साक्षात्कार के बाद, आप मुझ में समस्त प्राणियों को और समस्त प्राणियों में मेरा स्वरूप देखोगे। पाप के प्रभाव को नष्ट करने के लिए, गुरु, गीता और समर्पण के साथ, हमारे हो जाओ। अपने अज्ञान को नष्ट करो। इसके लिए ऊर्जा का केंद्र, मूलाधार ,स्वाधिष्ठान से होते हुए मणिपुर चक्र की यात्रा पूरी कर लेने पर ,आप उस द्वार पर होते हैं, जहां से एक झटके के साथ आप ऊपर उठ जाते हैं ।
पहले काम – फिर श्याम
आदरणीय गुरुजी को जानने वाले आपको अवगत करेंगे कि वह अक्सर कहते हैं “पहले काम, फिर श्याम”, अर्थात् पहले अपना कर्म पूरा करो, फिर मेरे पास आओ। पहले अपनी पढाई/ नौकरी/ काम-धंधा व परिवार के प्रति जिम्मेदारी निभाओ! इसलिए यह अति-आवश्यक है कि हम अपना धर्म तन-मन के साथ निभाएँ, चाहे वह हमारे काम के प्रति हो या परिवार/ सामाजिक।।
सहजयोग
भक्तियोग, योग साधना, ध्यानयोग, तंत्र-मंत्र, ज्ञानयोग इत्यादि बहुत गूढ विषय हैं, जिनको साधने के लिए साधक अपना पूरा जीवन निष्ठा पूर्वक साधना में लगा देते हैं, जोकि हम सांसरिक मानव सोच भी नहीं सकते! हमारी गति कैसे होगी? हमारी विडंबनाओं का एक मात्र उपाय है सहजयोग। सहजयोग क्या है? सहजयोग एक बहुत ही सरल व सहज उपाय है, जो कि हम अपने जीवन मेन अपना सकते हैं। इसमे क्या करना है? अपने जीवन में ऐसी दिनचर्या बनानी है, जिसमे निम्न छोटी-छोटी बातों का ध्यान रखना है, जो कि बहुत ही सरल है:
- सुबह ब्रह्मकाल (३-६) में उठें, दैनिक कार्य से निवृत होकर स्नान करें।
- प्रतिदिन नियमित पूजा–अर्चना, स्वाध्याय, ध्यान करें।
- अपने दायित्व (पढाई/ नौकरी/ काम-धंधे/ घर-परिवार/ समाज) पर तन-मन से प्रेमपूर्वक कार्यरत रहें। सबसे प्रेम-पूर्वक व्यवहार कर अपना दायित्व पूरा करें। परोपकार करें।
- श्रद्धा-सबूरी से रहें – जो है प्रायप्त है। प्रभु के शुकर-गुज़ार रहें – शूकरना!
- भगवान् को हाजिर-नाज़िर मानकर गुरुसेवा भाव से प्रेमपूर्वक व्यवहार करें तथा अपने दायित्व निभाएं।
- आखरी पर सबसे जरूरी: प्रभु सुमिरन/ मंत्र-जाप सतत करते रहें, जब भी संभव हो।
वैकुंठ और परमधाम में अंतर
वैकुंठ धाम: मान्यता है कि इस धाम में जीवात्मा कुछ काल के लिए आनंद और सुख को प्राप्त करती है, लेकिन सुख भोगने के बाद उसे पुन: मृत्युलोक में आना होता है। इस स्थान को स्वर्ग से ऊपर बताया गया है। वैकुंठ के ऊपर कैलाश पर्वत है। वैकुंठ को सूर्य और चन्द्र प्रकाशित करते हैँ। यहां गौर करें तो यह विष्णु का बद्रीनाथ धाम हो सकता है।
सनातन धर्म के अनुसार भगवान् श्रीविष्णु के धाम को वैकुंठ धाम कहा जाता है। आपने चार धामों के नाम तो सुने ही होंगे- बद्रीनाथ, द्वारिका, जगन्नाथ और रामेश्वरम्। इसमें से बद्रीनाथ धाम भगवान् विष्णु का धाम है। मान्यता के अनुसार इसे भी वैकुंठ कहा जाता है। यह जगतपालक भगवान् विष्णु का वास होकर पुण्य, सुख और शांति का लोक है।
परमधाम: कहते हैं कि परमधाम में जाने के बाद जीवात्मा सदा के लिए जीवन और मरण के चक्र से मुक्त हो जाती है। यह धाम सबसे ऊपर अर्थात् सर्वोच्च है। यहां निरंतर अक्षय सुख की अनुभूति होती रहती है। यह धाम स्वयं प्रकाशित है। यहां न सुख है और न दुख, यहां बस परमानंद ही है।
‘हे अर्जुन‘! जिस परम पद को प्राप्त होकर मनुष्य लौटकर संसार में नहीं आते, उस स्वयं प्रकाश परम पद को न सूर्य प्रकाशित कर सकता है, न चन्द्रमा और न अग्नि ही, वही मेरा परम धाम है ।।गीता अध्याय 15, श्लोक 6।।
‘हे अर्जुन! ब्रह्मलोक सहित सभी लोक पुनरावर्ती हैं, परंतु हे कुंतीपुत्र! मुझको प्राप्त होकर पुनर्जन्म नहीं होता, क्योंकि मैं कालातीत हूं और ये सब ब्रह्मादि के लोक काल द्वारा सीमित होने से अनित्य हैं ।।गीता अध्याय 8, श्लोक 16।।
गुरुजी के कथनानुसार कोई पापी जीव भी अपने दैनिक जीवन में नित्य स्वाध्याय करे तो निःसंदेह वो प्राणी भी सद्गति को प्राप्त हो सकता है। जैसा कि इस उदाहरण से प्रतीत होता है: