दिव्य दृष्टि

परम पूज्य श्री श्री १०८ श्री श्याम सुंदर जी महाराज द्वारा प्रेरित

जीवन-मृत्यु, सुख-दुःख के रहस्य का वर्णन प्राचीन काल से ही भारतीय शास्त्रों, वेदों-पुराणों आदि में विस्तार से वर्णित है तत्पश्चात समय-समय पर संत, ऋषि-मुनियों, महात्माओं, सद्-गुरुओं ने अपने अलौकिक ज्ञान से मानव जाति को इस विषय को गहराई से समझाने का प्रयत्न किया है।

आ॰ गुरुजी ने इस विषय में बताया कि जहाँ एक ओर महादेव और माँ पार्वती ने पुरुष एवं प्रकृति के मधुर मिलन के योग से ऊर्जा पैदा करके, पंचतत्व के समावेश से सृष्टि की रचना के लिए संसार रूपी चक्र की उत्पत्ति की, वहीं दूसरी ओर श्री हरि ने इस मानव को संसार रूपी चक्र से अध्यात्म की ओर ले जाते हुए, इससे मुक्त होने का मार्ग भी बताया है, जो कि श्री श्याम वैकुण्ठ धाम में दर्शाया गया है।

 सुखदुःख का कारण

पंचतत्व का पुतला, जो कि माँ के गर्भ में नौ महीने उलटे लटककर तप करते हुए ईश्वर से प्रार्थना एवं क्षमा याचना करता है: मुझको इस अंधकार से मुक्त करा दो, मैं बाहर आकर तुम्हारी भक्ति एवं जन-कल्याण में खो जाऊँगा। भगवान् तो दयालु हैं, जीव की प्रार्थना स्वीकार करते हुए उसे निश्चित साँस देकर मृत्युलोक में भेजा और कहा-वहाँ जाकर मेरा सुमिरन कर और करा और मैं तेरे साथ आठ सहयोगी (सत्य, अहिंसा, त्याग, दया, क्षमा, संयम, श्रद्धा और समर्पण) भेज रहा हूँ, इनकी दिशा निर्देश में रहना। लेकिन जीव इस मृत्युलोक में आगमन होते ही, श्री हरि के निर्देशों की अवहेलना करके मृत्युलोक के आठ विकारों (काम, क्रोध, अहंकार, लोभ, माया, कपट, आलस्य, और निद्रा) में फंसकर, पाँच ज्ञानेन्द्रियों, पाँच कर्मेन्द्रियों तथा पाँच विषय में लिप्त हो जाता है, तथा ईश्वर को भूल जाता है, इसलिए उसे कष्टों और दुखों का सामना करना पड़ता है-जैसा कि श्री श्याम वैकुण्ठ धाम की आधारशिला के माध्यम से दर्शाया गया है।

पहले बचपन, फिर जवानी, और अंत में जब ईश्वर को दिया वचन याद आता है, तो वह पछतावा करता है। यही कारण है कि जीव इस आवागमन के चक्रव्यूह में भटकता रहता है। ऋषि-मुनियों का कहना है कि इस आवागमन के चक्रव्यूह से निकलने का मार्ग शास्त्र, ग्रंथों और पुराणों में ही वर्णित है।

काम/ कामना (क्रोध, लोभ, मोह) आसक्ति का महायात्रा पर प्रभाव

त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः।
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्र  यं त्यजेत् ।।

श्रीमद् भगवद्गीता अध्याय 16 श्लोक 21 में भगवान् ने कहा कि दैवीसम्पत्ति मोक्ष के लिये और आसुरी सम्पत्ति बन्धन के लिये है। तो वह आसुरी सम्पत्ति आती कहाँ से है। जहाँ संसार की कामना होती है, संसार के भोगपदार्थों का संग्रह, मान, बड़ाई, आराम आदि जो अच्छे दिखते हैं? उनमें जो महत्त्वबुद्धि या आकर्षण है? बस? वही मनुष्य को नरकों की तरफ ले जाने वाला है। इसलिये काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर – ये ष़ड्रिपु माने गये हैं। इनमें से कहीं पर तीन का? कहीं पर दो का और कहीं पर एक का कथन किया जाता है? पर वे सब मिलेजुले हैं? एक ही धातु के हैं। इन सब में काम/ कामना ही मूल है, क्योंकि कामना के कारण ही आदमी बँधता है (गीता 5। 12)। तीसरे अध्याय के छत्तीसवें श्लोक में अर्जुन ने पूछा था कि मनुष्य न चाहता हुआ भी पापका आचरण क्यों करता है, उसके उत्तर में भगवान् ने काम और क्रोध – ये दो शत्रु बताये। परन्तु उन दोनों में भी एष शब्द देकर कामना को ही मुख्य बताया क्योंकि कामना में विघ्न पड़ने पर क्रोध आता है। यहाँ काम? क्रोध और लोभ – ये तीन शत्रु बताते हैं। तात्पर्य है कि भोगों की तरफ वृत्तियों का होना काम है, और संग्रह की तरफ वृत्तियों का होना लोभ है। जहाँ काम शब्द अकेला आता है? वहाँ उसके अन्तर्गत ही भोग और संग्रहकी इच्छा आती है। परन्तु जहाँ काम और लोभ – दोनों स्वतन्त्ररूप से आते हैं? वहाँ भोग की इच्छा को लेकर काम और संग्रह की इच्छा को लेकर लोभ आता है और इन दोनों में बाधा पड़ने पर क्रोध आता है। जब काम, क्रोध और लोभ – तीनों अधिक बढ़ जाते हैं? तब मोह होता है।

काम से क्रोध पैदा होता है और क्रोध से सम्मोह हो जाता है (गीता 2। 62-63)। यदि कामना में बाधा न पड़े? तो लोभ पैदा होता है और लोभसे सम्मोह हो जाता है। वास्तव में यह काम ही क्रोध और लोभका रूप धारण कर लेता है। सम्मोह हो जाने पर तमोगुण आ जाता है। फिर तो पूरी आसुरी सम्पत्ति आ जाती है। नाशनमात्मनः काम, क्रोध और लोभ – ये तीनों मनुष्यका पतन करने वाले हैं। जिनका उद्देश्य भोग भोगना और संग्रह करना होता है? वे लोग (अपनी समझसे) अपनी उन्नति करने के लिये इन तीनों दोषों को हितकारी मान लेते हैं। उनका यही भाव रहता है कि हम लोग काम आदिसे सुख पायेंगे? आराम से रहेंगे? खूब भोग भोगेंगे। यह भाव ही उनका पतन कर देता है। तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत् ये काम? क्रोध आदि नरकों के दरवाजे हैं। इसलिये मनुष्य इनका त्याग कर दे। इनका त्याग कैसे करे तीसरे अध्याय के चौंतीसवें श्लोक में भगवान् ने  बताया है कि प्रत्येक इन्द्रियों के विषय में अनुकूलता और प्रतिकूलता को लेकर राग (काम) और द्वेष (क्रोध) स्थित रहते हैं। साधक को चाहिये कि वह इनके वशीभूत न हो। वशीभूत न होने का अर्थ है कि काम, क्रोध, लोभ को लेकर अर्थात् इनके आश्रित होकर कोई कार्य न करे, क्योंकि इनके वशीभूत होकर शास्त्र, धर्म और लोकमर्यादा के विरुद्ध कार्य करने से मनुष्य का पतन हो जाता है।

कुछ भक्तों ने आदरणीय गुरुजी से पूछा कि आपने शिष्टाचार कहां से सीखा, जिसका जवाब अति विचित्र मिला: अशिष्ट लोगों से! अतः अगर हमारा गंतव्य स्वर्ग है, तो हमें वो सब नहीं करना, जो नरक गमनार्थी करते हैं व सत्कर्म करने हैं, जैसे दान पुण्य, सेवा भाव, मानवता व प्राणियों की सेवा, ग्रंथों का पठन पाठन इत्यादि, जैसा कि इस पुस्तक में भी अन्यथा विवरण है। निरवान शटकम हमें ऊच शिक्षा प्रदान करता है:

मनो-बुद्धि-अहंकार चित्तादि नाहं
न च श्रोत्र-जिह्वे न च घ्राण-नेत्रे ।
न च व्योम-भूमी न तेजो न वायु
चिदानंद-रूपं शिवो-हं शिवो-हं ॥१॥

न च प्राण-संज्ञो न वै पञ्च-वायु:
न वा सप्त-धातुर्न वा पञ्च-कोष: ।
न वाक्-पाणी-पादौ न चोपस्थ पायु:
चिदानंद-रूपं शिवो-हं शिवो-हं ॥२॥

न मे द्वेष-रागौ न मे लोभ-मोहौ
मदे नैव मे नैव मात्सर्य-भाव: ।
न धर्मो न चार्थो न कामो न मोक्ष:
चिदानंद-रूपं शिवो-हं शिवो-हं ॥३॥

न पुण्यं न पापं न सौख्यं न दु:खं
न मंत्रो न तीर्थं न वेदा न यज्ञा: ।
अहं भोजनं नैव भोज्यं न भोक्ता
चिदानंद-रूपं शिवो-हं शिवो-हं ॥४॥

न मे मृत्यु न मे जातिभेद:
पिता नैव मे नैव माता न जन्मो ।
न बन्धुर्न मित्र: गुरुर्नैव शिष्य:
चिदानंद-रूपं शिवो-हं शिवो-हं ॥५॥

अहं निर्विकल्पो निराकार रूपो
विभुत्त्वाच्च सर्वत्र सर्वेन्द्रियाणां ।
सदा मे समत्त्वं न मुक्तिर्न बंध:
चिदानंद रूपं शिवो-हं शिवो-हं ॥६॥

 पापपुण्य की गठरी

प्राणी अपनी निश्चित साँसें पूरी होने के बाद, अपने जीवन में अच्छा-बुरा कार्य कर, पंचतत्व के पुतले को पंचतत्व में विलीन कर, सूक्ष्म शरीर के माध्यम से, संसार से अपने साथ पाप- पुण्य की गठरी बांध कर मरणोपरांत अपनी आगे की यात्रा करता है,जैसा कि हमारे गरुड़ पुराण में लिखा है और इस पुस्तक में दर्शया गया है। श्री नारायण जी स्वयं इस सांसारिक चक्र से निकलने के लिए आध्यात्मिकता का पाठ सिखाते हुए आगे की यात्रा सुगम बनाने का रास्ता दिखाते हैं।

जीवनमृत्यु चक्र

शास्त्रों के अनुसार काल को दो अर्थों में समझाया गया है-समय और मृत्यु। समय का मृत्यु से और मृत्यु का समय से जुड़ना यह दर्शाता है कि मनुष्य का जीवन काल का समय मृत्यु के समान एक निश्चित अवधि के लिये ही प्रदान किया गया है।यह समय जन्म से प्रारम्भ होकर मृत्यु पर समाप्त होता है। वेदों और पुराणों में समय और मृत्यु को पर्यायवाची की तरह भी प्रयोग किया गया है। समय का चक्र एक रूप से कभी न समाप्त होने वाली क्रिया है। एक चक्र समान-जीवन-मृत्यु और फिर एक नया जीवन। अध्यात्म की दृष्टि से मनुष्य जब काल रूपी समय और मोह माया के जाल को समझ जाता है तब शरीर और आत्मा अलग-अलग हो जाते हैं, जहाँ शरीर का अंत निश्चित होता है पर आत्मा फिर किसी दूसरे शरीर में प्रवेश कर जाती है।

भगवान् श्री कृष्ण ने कुरुक्षेत्र के युद्ध-स्थल में अर्जुन को सांसारिक रहस्यों के विषय में विस्तार से सहज से एवं सरल भाषा में समझाया है।अर्जुन को यह सौभाग्य इसलिए प्राप्त हुआ क्योंकि वह भगवान् का भक्त, परम शिष्य तथा घनिष्ठ मित्र था।

ईश्वर को समझने वाले निष्ठावान एवं सुपात्र प्राणी

भगवान् कहते हैं कि कष्ट भोगने वाले अनेक मनुष्यों में केवल कुछ ही ऐसे हैं जो वास्तव में यह जानने के जिज्ञासु हैं कि वे क्या हैं और वे इस विषय में क्यों डाल दिये गये हैं, आदि-आदि। अतः जो लोग यह प्रश्न करना प्रारम्भ कर देते हैं कि वो क्यों कष्ट उठा रहे हैं, कि वे कहाँ से आए हैं और मृत्यु के बाद कहाँ जायेंगे, वास्तव में वे ही ईश्वर को समझने वाले निष्टावान एवं सुपात्र प्राणी हैं।

भगवान् प्रकृति, काल तथा कर्म की व्याख्या करते हुए कहते है कि यह दृश्य-जगत विभिन्न कार्यकलापों से ओत-प्रोत है और सारे जीव भिन्न-भिन्न सांसारिक कार्यों में लगे हुए हैं। मनुष्य को यह सीखना चाहिये कि ईश्वर क्या है, जीव क्या है, प्रकृति क्या है, दृश्य जगत क्या है, यह काल द्वारा किस प्रकार नियंत्रित किया जाता है।

कर्मों के फल

कर्म शाश्वत् नहीं है लेकिन कर्म के फल अत्यन्त पुरातन हैं । मनुष्य अनादिकाल से अपने शुभ-अशुभ कर्म फलों को भोग रहा है, किन्तु साथ ही वह अपने कर्मों के फल को बदल भी सकता है और यह परिवर्तन हमारे ज्ञान की पूर्णता पर निर्भर करता है। मनुष्य विविध प्रकार के कर्मों में व्यस्त रहता है, निःसंदेह वह नहीं जानता कि किस प्रकार के कर्म करने से वह कर्मफल से मुक्ति प्राप्त कर सकता है। लेकिन भगवान् की शरण में आने से उसे ठीक मार्गदर्शन मिलता है।

विवेक/ ज्ञान से बड़े सत्य का रास्ता

श्री भगवान् कहते हैं: कि हे अर्जुन! इस स्थूल शरीर से इंद्रियाँ श्रेष्ठ हैं, इंद्रियों से मन श्रेष्ठ है, मन से बुद्धि श्रेष्ठ है, आत्मा बुद्धि से भी श्रेष्ठ है। इस प्रकार आत्मा को सर्वश्रेष्ठ मानते हुए, बुद्धि से मन को बस में करके, मन से इंद्रियों द्वारा, हे महाबाहो, तू इस कामरूपी दुर्जय शत्रु को मार डाल, अर्थात् उसका विनाश कर दे।

इंसान अखाड़ा/ जिम (Gym) आदि में अपने शरीर को मजबूत बनाकर सोचता है कि वह बहुत ताकतवर हो गया है, जबकि सच यह है कि हमारा शरीर सबसे बाहरी हिस्सा है। इस शरीर से ज्यादा ताकतवर तो इंद्रियाँ हैं, जिनके लोभ में ताकतवर इंसान फंस जाता है। जैसा इंद्रियां चाहती हैं, शरीर वैसा ही करने लगता है। अगर गौर से देखा जाए तो इन्द्रियाँ भी खुद-ब-खुद कुछ नहीं करती। वह तो वैसा ही करती है जैसा मन उन्हे कहता है। इन्द्रियाँ मन के वश में होती हैं, यदि मन उनको रोक दे, तो सामने रखा स्वादिष्ट भोजन भी जीभ नहीं खाती/ चख पाती। इसलिए मन इंद्रियों से भी ज्यादा श्रेष्ठ है और ताकतवर भी।

इसी तरह मन से सूक्ष्म बुद्धि है। जब बुद्धि किसी अच्छे या बुरे काम का निर्णय लेती है, तो मन, इन्द्रियाँ और शरीर, सब उसका कहना मानने लगते हैं। लेकिन इस बुद्धि से भी सूक्ष्म और बलवान हमारी आत्मा है आत्मा से जुड़ने की कोशिश करनी चाहिए, जिससे व्यक्ति परम आनंद की स्थिति में रहता है।

जीवन में ज्ञान को बड़ा कर अपनी बुद्धि को सूक्ष्म करते जाओ, इससे विवेक ज्ञान का जन्म होगा। जिस प्रकार बुद्धि संसार में अच्छे-बुरे का ज्ञान देती है. वैसे ही विवेक का ज्ञान सबसे बड़े सत्य का रास्ता दिखाता है। यही विवेक आत्मा का अनुभव सत्य का रास्ता दिखाता है। इसी में हम बुद्धि और मन को वश में करते हैं। जब मन वश में हो जाता है, तो इंद्रियाँ खुद-ब-खुद काबू नियंत्रण में आ जाती हैं। यह बुराई को खत्म करने की एक आध्यात्मिक प्रक्रिया है।

अधिकतर लोग इस साधना से न जाकर, सीधे अपनी कामवासना को दबा कर बाहर से साधु बन जाते हैं, लेकिन असल में वासना अंदर ही रह जाती है, और मौका पाते ही कामवासना उबरती है। बाहर से कामवासना को काबू करना कोई समाधान नहीं है। भगवान् कह रहे हैं कि जब तक सूक्ष्म बुद्धि और आत्मा को नही जानोगे, तब तक काम भीतर मन में ही पडा रहेगा। ऐसे मे आत्मा को जान कर पूरी सजगता से मन में पड़े हुए अपने काम रूपी दुश्मन को ज्ञान की आग से भस्म कर डालो। यदि ऐसा नही किया तो सत्य के ज्ञान के अभाव से काम फिर से उभर जायेगा।

 तीन प्रकार के भक्त

श्री भगवान् बोले: मैंने इस अविनाशी योग के सम्बन्ध में सूर्य से कहा था, सूर्य ने अपने पुत्र वैवस्वत मनु से कहा और मनु ने अपने पुत्र राजा ईक्ष्वाकु से कहा। हे परंतप। इस प्रकार परम्परा से प्राप्त इस योग को राजऋषियों ने जाना, किन्तु उसके पश्चात् यह योग दीर्घकाल से पृथ्वीलोक में लुप्त प्रायः हो गया। तू मेरा भक्त एवं प्रिय सखा है, अतः इस पुरातन योग के बारे में आज तुझको बता रहा हूँ जो गुप्त रखने योग्य विषय है।

भगवान् कृष्ण ने कुरुक्षेत्र की रणभूमि में अर्जुन को बताया है-हे अर्जुन! मेरे तीन प्रकार के भक्त होते हैं:

  1. कर्मफल में इच्छा रखने वाला: पहला,वो जो सांसारिक भोगों की कामना के लिए दुःख-सुख में मुझे याद करता है। अर्थात् मूर्ति पूजा करता है, मंदिर/शिवालय जाता है। ऐसे भक्तों के लिए आदरणीय गुरुजी ने श्री वैकुण्ठ धाम के प्रांगण में श्री बालाजी मंदिर एवं शिवालय का निर्माण किया है।
  2. जिज्ञासु: दूसरा,वो जो मुझे जानने की इच्छा रखता है (जिज्ञासु भक्त), जो मेरे परम तत्व से मुझे जानने की चेष्टा करता है। जिज्ञासु भक्तों के लिए आदरणीय गुरुजी द्वारा “श्री श्याम वैकुण्ठ धाम” परिसर में श्री बालाजी मंदिर एवं शिवालय के मध्य से 25 पौड़ी चढ़कर शीशे का द्वार खोलकर श्री सत्य नारायण जी के दर्शन कर जिज्ञासा प्रकट कर सकता है। लेकिन भगवान् को निहारना ही जिज्ञासा प्रकट नहीं करता, क्योंकि स्वयं श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा है कि, हे अर्जुन, जो मनुष्य मेरे दिव्य जन्म और दिव्य कर्म को पूरी तरह से जान लेता है, वह देह त्यागने के बाद पुनर्जन्म के बंधन से मुक्त होकर मुझे ही प्राप्त होता है। अक्सर इंसान ऐसा सोच लेता है कि मैंने भागवत और रामायण में भगवान् के जन्म से जुड़ी लीलाएं और उनके कामों को बड़े रस से सुना है और इस तरह मुझे भगवान् की पूरी जानकारी होगी। इसी तरह आगे भी मैं लीलाओं को बार-बार सुनकर अंत में मुक्त हो जाऊंगा। लेकिन भगवान् श्री कृष्ण कह रहे हैं कि जो मेरे दिव्य जन्म और दिव्य कर्म को तत्व से जानेगा, वह मुक्त होगा यहाँ भगवान् ने दिव्य जन्म, दिव्य कर्म को तत्व से जानने को कहा है। उसको तत्व से जाने बिना हमारी आध्यात्मिक उन्नति संभव नहीं है। तत्व से जानने का मतलब है कि उनको हर वक्त और हमेशा अनुभव करें और ये भाव बनाए रखें कि पूरी दुनिया में वह रचे बसे हैं। यह ज्ञान सिर्फ शब्दों का न हो, बल्कि यह भाव हमारे हर काम में, इंद्रियों में, मन और बुद्धि आदि सभी में पक्का रहना चाहिए। हमें ये मान लेना चाहिए कि प्रभु हर जगह हाज़िर-नाज़िर हैं, उनके बिना यहाँ कुछ भी घटित नहीं होता। जब हम इस अवस्था को पा लेते हैं, तब शरीर को त्यागने, यानी मृत्यु के बाद दोबारा जन्म नहीं लेते और प्रभु के पास पहुँच जाते हैं।
  3. ज्ञानी: मेरा परम प्रिय भक्त केवल वो है जो मुझे अंतर्मन से जानता-समझता है, मुझे एक सर्वशक्तिमान, अपना स्वामी मानते हुए, निःस्वार्थ एवं निष्काम, बिना किसी संकल्प के, मेरे परायण में विचरण करता है। ऐसे भक्तों के लिए आदरणीय गुरुजी ने श्री श्याम वैकुण्ठ धाम परिसर में श्री सत्य नारायण मंदिर का निर्माण किया है। ये भक्त श्री सत्य नारायण जी के समक्ष एवम् गंगा मैया के समीप साधना कर सकते हैं। आशा करते हैं कि ऐसे मनोरम वातावरण में उनको आगे का मार्ग मिलेगा।

अध्यात्म की अनुभूति

धर्म और अध्यात्म की जानकारी के लिए दोनों तथ्यों को समझना अनिवार्य है। धर्म ईश्वर के किसी एक स्वरूप के प्रति प्रेम और निष्ठा का मनुष्य के हृदय में उजागर करता है-अध्यात्म ईश्वर के किसी एक स्वरूप को अंकित न करते हुए मनुष्य को ईश्वरत्व, सत्य और प्रेम की ओर अग्रसर होने की प्रेरणा देता है। आध्यात्मिकता हम में धार्मिक प्रवृति को उजागर कर सकती है परन्तु धार्मिकता हमें आध्यात्मिक नहीं बना सकती। अध्यात्म/ अध्यात्म = आद्या (ज्ञान), आत्मा, की इस पेचीदा परिभाषा को समझने के लिए मानव के लिए मानवता के प्रति सुकार्य हो मनुष्य को धर्म से ऊपर उठाकर अध्यात्म की पहचान कराते हैं, अध्यात्म ही एक ऐसा मार्ग है जहाँ ईश्वर का निराकार स्वरूप मनुष्य के मानस स्थल में विराजमान होने लगता है। इस निराकार स्वरूप की अनुभूति और ज्ञान ही मनुष्य को इस जीवन-मृत्यु के चक्र से मुक्ति की ओर अग्रसर होने का मार्ग दिखाती है। अध्यात्म ही वह अनुभूति है जिसमे मनुष्य और ईश्वर के अलावा कुछ भी नहीं होता-न सांसारिक मोह, न ईर्ष्या, न क्रोध, न प्रेम आदि-आदि ये सब तथ्य एक में विलीन होकर मनुष्य और ईश्वर के बीच एक अलौकिक सीधा संबंध बना देते हैं।

आत्मा एवं भावनाओं का विशुद्धिकरण: सद्-गुरु  की शरण

संत भी अपनी वाणी द्वारा जीव को समझाते हुए कहते हैं कि हे मनुष्य! तू व्यर्थ ही इस भौतिक शरीर से मोह करता है, शरीर तो पाँच तत्वों से बना हुआ एक पुतला है जो अंत में इसी में विलीन हो जाता है। इस भौतिक शरीर की वास्तविकता को देखें तो पता लगता है कि यह तो पूर्ण रूप से गंदगी से भरा हुआ है-आँखों से कीठ, कान में मैल, मुँह से बदबू, शरीर के अंग-अंग से पसीने की दुर्गन्ध और शेष अंदर की गंद यानी मल-मूत्र निकलने का मार्ग। इस कारण संत कहते हैं कि मनुष्य को शरीर का मोह त्याग कर अपने आत्मा एवं भावनाओं के विशुद्धिकरण के लिये सद्-गुरु की शरण में जाना चाहिए। यह शरीर तो केवल सृष्टि को अग्रसर करने का एक साधन है, इसलिये इसका मोह और भोग त्याग कर मनुष्य को भगवान् की शरण में जाना चाहिये जिससे कि जीव को सद्-गति का मार्ग दर्शन हो सके।

श्रद्धालु प्रवीन जैन