मृत्यु के बाद की महायात्रा


परलोक गमन मार्ग 

मृत्यु पर्यंत के ज्ञान के बारे में जीव अज्ञानी है। भगवान् श्री हरि विष्णु ने यह ज्ञान गरुड़ जी को दिया जो गरुड़ पुराण के रूप में महर्षि वेद व्यास द्वारा रचित है। समय-समय पर ऋषियों, महात्माओं, संतों एवं गुरुजनों ने अपने अलौकिक ज्ञान से सांसारिक प्राणियों को इस महायात्रा के विषय में समझाया है। श्री श्याम वैकुण्ठ धाम में कलाकृति एवं चित्रण के माध्यम से गरुड़ पुराण के इसी ज्ञान को दर्शया गया है।

तेरहवीं का विधान

जब यमदूत आत्मा को स्थूल शरीर से निकाल लेते है, तब स्थूल शरीर को यहां अंतिम संस्कार के लिए छोड़ दिया जाता है, अब शरीर से बाहर सूक्ष्म शरीर का निर्माण हुआ रहता है। लेकिन ये सभी का नहीं हुआ रहता। जो लोग अपने जीवन में ही मोहमाया से मुक्त हो चुके योगी पुरुष है, उन्ही के लिये तुरंत सूक्ष्म-शरीर का निर्माण हो पाता है। अन्यथा जो लोग मोहमाया से ग्रस्त है परंतु बुद्धिमान है ज्ञान-विज्ञान से, पांडित्य से युक्त है, ऐसे लोगों के लिये दस दिनों में सूक्ष्म शरीर का निर्माण हो पाता है।

गरुड़ पुराण के अनुसार हिंदु धर्म-शास्त्र में दस गात्र का श्राद्ध और अंतिम दिन मृतक का श्राद्ध करने का विधान इसीलिये है क्योंकि दस दिनों में दिए गए पिंड दान से सूक्ष्म शरीर का निर्माण होता है :

  1. पहले दिन के पिंड से सूक्ष्म शरीर का सिर बनता है।
  2. दूसरे दिन के पिंड से गर्दन और कंधे प्राप्त होते हैं।
  3. तीसरे दिन के पिंड से ह्रदय प्राप्त होता है।
  4. चौथे दिन के पिंड से पीठ प्राप्त होती है।
  5. पांचवे दिन के पिंड से नाभि प्राप्त होती है।
  6. छठे दिन के पिंड से कूल्हा प्राप्त होता है।
  7. सातवें दिन के पिंड से जांघ प्राप्त होती है।
  8. आठवें दिन के पिंड से घुटने प्राप्त होते है।
  9. नौवें दिन में पूरा शरीर बनता है ।
  10. दसवें दिन शुद्धि होती है।

इन दस दिनों में, जब तक दस गात्र का श्राद्ध पूर्ण नहीं होता और सूक्ष्म-शरीर तैयार नहीं हो जाता आत्मा, प्रेत के रूप में निवास करती है। अगर किसी कारण वश ऐसा नहीं हो पाता है तो आत्मा प्रेत योनि में भटकती रहती है।

आजकल की जीवनशैली में प्रायः देखा जाता है कि हम चौथा या उठाला कर देते हैं । हम सोचते हैं कि हमने अंतिम संस्कार कर दिया और आत्मा चली गई परंतु यह सच नहीं है आत्मा उसी घर में विराजमान होती है। जिस दिन ब्राह्मण भोज होता है उसी दिन से यात्रा प्रारम्भ होती है। इस पूरे काल तक आत्मा उसी घर में रहती है। यहां से जीवात्मा की यात्रा प्रारंभ होती है ।

यमलोक

यमलोक के राजा यमराज हैं। यमराज तीन योजन लम्बे है। रंग में काले है, एवं दिखने में खतरनाक है, उनका वाहन बैल है। एक हाथ में यमदंड है और दूसरे हाथ में मृत्यु पाश है। यमराज काले और पीले रंग के वस्त्र धारण किये हुए है। उनकी आँखें बड़ी और लाल है। यमराज का विकराल स्वरुप देख कर पापी आत्मा भयभीत हो जाती है। यमलोक में चित्रगुप्त जी का एवं धर्मराज जी का भव्य भवन है।

चित्रगुप्त मंदिर

यमलोक में 25 योजन लम्बा चौड़ा चित्रगुप्त जी का सुंदर मंदिर है जो लगभग 250 योजन ऊंचा है। इस मनोहर चित्रगुप्त भवन के चारों ओर सुंदर उपवन एवम् उद्यान आदि हैं। श्री चित्रगुप्त अति अद्भुत आसन पर विराजमान समस्त प्राणियों की सम्यक् प्रकार से आयु गणना करते रहते हैं। चित्रगुप्त जी की गणना अनुसार यमलोक में जीवों को अपने शुभ एवं अशुभ कर्मों का फल आदेशानुसार यथा रूप से भोगना पड़ता है।

धर्मराज मंदिर

चित्रगुप्त भवन से 20 योजन आगे सुंदर धर्मराज मंदिर है। यह मंदिर 200 योजन लम्बा चौड़ा तथा 50 योजन ऊँचा है। श्री विश्वकर्मा ने आत्योग शक्ति तथा दीर्घकाल तक तप करने के पश्चात् इसकी रचना की है। यहाँ किसी को भी यथा पीड़ा नहीं होती। यहाँ आने वाले जीव, तपस्वी, सत्यव्रती, सिद्ध और पवित्र कर्मा होते हैं। धर्मराज मंदिर की एक सभा सौ योजन लम्बी, सूर्य के सामान प्रकाशित एवं परमानंदायक है। धर्मराज छत्र, कुंडल. बहुमूल्य मुकुट धारण किये हुए आसन पर विराजमान हैं, स्वयं चित्रगुप्त धर्मराज की सेवा करते हुए दिखाई देते हैं, धर्मराज की सभा में वशिष्ठ, दक्ष, भृगु, नारद इत्यादि ऋषिगण, अनेकों ऋषियों सहित उपस्थित हैं। सूर्यवंशी एवं चंद्रवंशी राजा भी धर्मराज की सेवा में लीन हैं। धर्मराज सभा धर्म के आधीन है। यहाँ पक्षपात, परमुखा आदि भाव नहीं हैं। धर्मराज के नगर में प्रवेश करने के चार द्वार हैं:

  • धर्मराज की उत्तम सभा को दक्षिण मार्ग से गमन करने वाले पापी आत्माएं जीव केवल देख पाते हैं।
  • प्रवेश का पूर्व दिशा का मार्ग रत्न निर्मित मंडप है। हंस पक्षियों से शोभित इस नगर में उद्यान एवं अमृत बिन्दु आदि शोभायमान हैं। इस मार्ग द्वारा ब्रह्मर्षि, मातृ-पितृ भक्त, धर्मरत, क्रोध-लोभ रहित, गुरु-सेवक, भूदाता, गौ-दाता, वेद पुराण वाचक तथा श्रोता, सत्य-पुरुष, पवित्र आत्मा वाले प्राणी इस पूर्व द्वार से धर्मराज सभा में प्रविष्ट होते हैं।
  • प्रवेश के उतर दिशा के मार्ग में सैंकड़ों रथ तथा पालकियाँ रखी हैं। सत्पात्र पूजक एवं महा दानव्रती इस उत्तर मार्ग द्वारा धर्मराज की सभा में प्रविष्ट होते हैं।
  • प्रवेश के पश्चिम दिशा का मार्ग रत्न मन्दिरों, ऐरावत कुल के हाथियों तथा अश्वरत्नों से व्याप्त है। इस मार्ग द्वारा आत्म विचारक, श्री विष्णु के परम भक्त, गायत्री मंत्र जपी वेदपाठी, वानप्रस्थी, तपस्वी आदि धर्मराज मंदिर के लिए गमन करते हुए पश्चिम द्वार द्वारा धर्मराज सभा में प्रविष्ट होते हैं। धर्मराज अपने आसन से उठकर इनका स्वागत करते हैं, नमस्कार कर सिंहासन प्रदान करते हैं तथा इनका पूजन करते हैं। पुराण कहते हैं इन पावन ज्ञान आत्माओं को प्रणाम करो, ये सभी इस मंडल का भेदन करके ब्रह्मलोक में गमन करेंगे। पुण्य आत्मा धर्मराज और उनकी सभा को प्रणाम करके देवगणों से पूजित विमानों से आरूड़ होकर परमपद हेतु गमन करते हैं। कुछ धर्मराज की सभा में रह जाते हैं तथा वहाँ कल्पान्तक निवास कर समस्त देव भोग भोग कर मनुष्य योनि प्राप्त करते हैं।

यात्रा

मृत्युलोक से यमलोक की दूरी है 86 हज़ार योजन है, एक योजन में 7.5 मील होते है अर्थात् 10 लाख 32 हज़ार किलोमीटर है।

गरुड़ पुराण के अनुसार पृथ्वी से यमलोक की दूरी आत्मा को पैदल चलकर ही पूरी करनी है। हर रोज़ आत्मा 247 योजन अर्थात् 3000 किलोमीटर की यात्रा पूरी करती है। मृत्युलोक से यमलोक तक जाने में आत्मा को 348 दिन, लगभग एक वर्ष का समय लगता है इसीलिए श्राद्ध कर्म ग्यारहवें महीने में किया जाता है। बारहवें महीने में आत्मा यमलोक पहुँचती है, और वहां उसका निर्णय होता है। मृत्युलोक से यमलोक की इस यात्रा में सोलह पड़ाव है जो इस प्रकार है: सौम्यपुर, सौरिपुर, नगेन्द्रभवन, गंधर्व, शैलागम, क्रौंच, क्रूरपुर, विचित्रभवन, वहवापद, दुखद, नानाक्रन्दपुर, सुतप्तभवन, रौद्रनगर, पयोवीर्षण, शीताढ्य और बहुभीति।

यममार्ग में मिलने वाली यातनाएं

श्री भगवान् बोले हे गरुड़! यमलोक का मार्ग बहुत दुखदायी है। इस यात्रा में कहीं विश्राम करने का कोई स्थान नहीं है। आत्मा को विभिन पड़ावों पर भिन्न-भिन्न तरीके की यातनाएं भोगनी पड़ती है। किसी पड़ाव पर दस सूर्य एक साथ होते है, और बहुत भीषण गर्मी पड़ती है। ऐसी भीषण गर्मी में तपती रेत पर नंगे पैर चलना पड़ता है, और यदि चलने की गति धीमी की तो यमदूत हंटर मारते है। वहां पर पेड़ की छाया उसको मिलती है जिसने पुण्य किये हो, जिसके पुत्र हो वो दान में चप्पल आदि दान करते है तो आत्मा को वहां चप्पल मिलती है, जो कपडे दान करते है उनको कपडे मिलते है। किसी पड़ाव पर बड़े बड़े पत्थरों की वर्षा होती है, तो कहीं दलदल, कीचड़, विष्ठा से भरे तालाब होते है। किसी पड़ाव पर बड़ी बड़ी लाल आँखों से क्रूरता से लोग देखते है, डराते है, कहीं पर बर्फीली हवा चलती है, कहीं काटें चुभते है कहीं महाविषधारी सर्पों, बिच्छुओं से डसवाया जाता है। यममार्गी पापियों को कहीं सिंहो, और भयंकर कुत्तों से कटवाया जाता है, कहीं-कहीं कीलों के ऊपर चलाया जाता है, जोकों से भरे कीचड़ में गिराया जाता है, जलती हुई अग्नि में पकाया जाता है।  कहीं रक्त, कहीं गर्म जल और कहीं पर खारे कीचड़ की वर्षा होती है।

वैतरणी नदी

पुराणों में वर्णित 28 नर्कों में वैतरणी नदी भी एक नर्क ही है, जो सर्वाधिक कष्टदायक और भयानक है। यम मार्ग के बीचोबीच अत्यन्त उग्र और घोर वैतरणी नदी बहती है। वह देखने पर दु:खदायिनी हो तो क्या आश्चर्य? उसकी वार्ता ही भय पैदा करने वाली है। वह सौ योजन चौड़ी है, उसमें पूय (पीब-मवाद) और शोणित (रक्त) बहते रहते हैं। हड्डियों के समूह से तट बने हैं, अर्थात् उसके तट पर हड्डियों का ढेर लगा रहता है। माँस और रक्त के कीचड़ वाली यह नदी दु:ख से पार की जाने वाली है।

अथाह गहरी और पापियों द्वारा दु:खपूर्वक पार की जाने वाली यह नदी केश रूपी सेवार से भरी होने के कारण दुर्गम है। वह विशालकाय ग्राहों (घड़ियालों) से व्याप्त है, और सैकड़ो प्रकार के घोर पक्षियों से आवृत है। आये हुए पापी को देखकर वह नदी ज्वाला और धूम से भरकर कड़ाह में रखे घृत की भाँति खौलने लगती है। वह नदी सूई के समान मुख वाले भयानक कीड़ो से चारों ओर व्याप्त है। वज्र के समान चोंच वाले बड़े-बड़े गीध एवं कौओं से घिरी हुई है।

वह नदी शिशुमार, मगर, जोंक, मछली, कछुए तथा अन्य मांसभक्षी जलचर – जीवों से भरी पड़ी है। – भूख और प्यास से व्याकुल होकर पापी जीव रक्त का पान करते हैं। वह नदी झागपूर्ण रक्त के प्रवाह से व्याप्त, ममहाघोर, अत्यन्त गर्जना करने वाली, देखने में दु:ख पैदा करने वाली तथा भयावह है। उसके दर्शन मात्र से पापी चेतनाशून्य हो जाते हैं।

बहुत से बिच्छू तथा काले सर्पों से व्याप्त उस नदी के बीच में गिरे हुए पापियों की रक्षा करने वाला कोई नहीं है। उसके सैकड़ों, हजारों भँवरों में पड़कर पापी पाताल में चले जाते हैं। क्षण भर पाताल में रहते हैं और एक क्षण में ही ऊपर चले आते हैं। वह नदी पापियों के गिरने के लिए ही बनाई गई है। उसका पार नहीं दिखता। वह अत्यन्त दु:खपूर्वक तरने योग्य तथा बहुत दु:ख देने वाली है।

इस प्रकार बहुत प्रकार के क्लेशों से व्याप्त अत्यन्त दु:खप्रद यममार्ग में रोते-चिल्लाते हुए दु:खी पापी जाते हैं। कुछ पापी पाश से बँधे होते हैं, और कुछ अंकुश में फंसाकर खींचे जाते हैं, और कुछ शस्त्र के अग्र भाग से पीठ में छेदते हुए ले जाये जाते हैं। कुछ नाक के अग्र भाग में लगे हुए पाश से, और कुछ कान में लगे हुए पाश से खीचे जाते हैं। कुछ काल पाश से खींचे जाते हैं।

वे पापी गरदन, हाथ तथा पैर में जंजीर से बँधे हुए तथा अपनी पीठ पर लोहे के भार को ढोते हुए मार्ग पर चलते हैं। अत्यन्त घोर यमदूतों के द्वारा मुद्गरों से पीटे जाते हुए, वे मुख से रक्त वमन करते हुए तथा वमन किये हुए रक्त को पुन: पीते हुए जाते हैं। उस समय अपने दुष्कर्मों को सोचते हुए प्राणी अत्यन्त ग्लानि का अनुभव करते हैं और अतीव दु:खित होकर यमलोक को जाते हैं।

वैतरणी खेने वाले मल्लाह आकर कहते हैं कि हम लोग वैतरणी नदी के पार उतारने वाले हैं। यदि तुम्हारा पुण्य हो तो आकर इस नौका में बैठ जाओ। यदि जीव ने गोदान दिया है, तो नौका से पार जा सकता है, अन्यथा यमदूत आत्मा को वैतरणी नदी में फेंक देते है।

वैतरणी नदी से पार उतारने वाला गोदान है: काली अथवा लाल वर्ण की गौ को सोने के सींग, चांदी के खुर और आभूषण आदि से सजाकर उस गौ पर दो काले वस्त्र उढ़ायें और गले में घंटी बांधे। रुई पर वस्त्र सहित तांबे का कलश स्थापित करें। ईख की नाव बनाकर उस पर रेशम के धागे लपेट दें और एक गढ़ा खोद कर उसमे जल भरकर उसमें नाव को छोड़ दें। हाथ से गौ की पूंछ पकड़कर और पैर को नाव में रखकर ब्राह्मण के सामने मंत्र पढ़े। हे जगन्नाथ! आपको नमस्कार है, यमलोक के मार्ग में सौ योजन चौड़ी महाभयंकर वैतरणी नदी के पार करने के लिए मैं आपको यह वैतरणी गौ देता हूं।

कौन है वो पापी आत्माएं जिनको ये यातनाएं भोगनी होती है?

यह विषय पुराणों में इस प्रकार वर्णित है, जो मनुष्य संत, महात्मा, गुरु, आचार्य आदि को अपमानित करते हैं, जो गाय को भोजन नहीं देते, धार्मिक मर्यादाओं को नष्ट करने वाले, अहंकारी एवं विषयभोग में लीन रहते है। जो दान दे कर उसका हरण कर लेते हैं, दान देने के बाद पश्चाताप करते हैं, तथा दूसरों को दान देने से रोकते हैं। ऐसी समस्त पापी आत्माओं को ये यातनाएं भोगनी पड़ती है।

नर्क

जो मनुष्य भक्ति व ज्ञान छोड़कर दूसरी ओर अपना मन लगाता है वह कूकर्म करने से चौरासी लाख योनि व नर्क में बहुत दुख पाकर आवागमन से नहीं छूटता। जो लोग मनुष्य तन पाकर परमेश्वर का भजन व स्मरण नहीं करते उनको बड़ा अभागा व मूर्ख समझना चाहिए।

नरक लोक

कर्त्ता की इच्छा से श्रद्धा में तीन प्रकार का भेद होने से कर्म की गति भी अलग-अलग न्यूनाधिक होती है। सत्व गुण की श्रद्धा से कर्म करने वाले कर्ता को सुख, तथा रजोगुण की श्रद्धा से कर्म करने वाले कर्ता को सुख और दुःख दोनों; तथा तमोगुण की श्रद्धा से कर्म करने वाले कर्ता को केवल दुख ही प्राप्त होता है।

शास्त्रों में जिसको निषेध कहा है, उसी को अधर्म कहते हैं। उन पापी जनों को नरक की गति मिलती हैं। नर्क के द्वार पर पितरों का राजा धर्मराज अपने दूतों के द्वारा आत्माओं के लाने पर चित्रगुप्त द्वारा उनके कर्मों के दोष-गुणों को विचार कर उसी के अनुसार उसे दण्ड प्रदान कराते हैं व निम्न प्रकार के 28 नरकों में से उपयुक्त में भेज देते हैं, जिनमें भिन्न-भिन्न प्रकार के कष्ट प्राणी को उसके कर्मों के अनुसार प्राप्त होते हैं।

श्रीमद भागवद पुराण के छब्बीसवां अध्याय [स्कंध ५] में विवरण है कि कहाँ जाती है आत्मा मरने के बाद? नरक लोक में, जीवात्मा की अलग अलग नरकों में क्या स्थिति होती है:

  1. जो पुरुष दूसरों की वैध पत्नी, सन्तान या धन का अपहरण करता है, उसे क्रूर यमदूत काल के रस्सों में बाँधकर बलपूर्वक तामिस्र नामक नरक में डाल देते हैं।
  2. जो व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति को धोखा देकर उसकी पत्नी तथा सन्तान को भोगता है वह अन्धतामिस्र नामक नरक में स्थान पाता है।वह बुद्धि तथा दृष्टि दोनों खो बैठता है। ।
  3. ऐसा व्यक्ति जो अपने शरीर तथा अपनी पत्नी और पुत्रों के पालन के, धन के लिए,धर्म का विचार न कर,दूसरों से कपट करता है, अन्य जीवात्माओं के प्रति हिंसा करता है,उसे रौरव नामक नरक में फेंक दिया जाता है।वहाँ रुरु नामक जानवर उसे असह्य पीड़ा पहुँचाते हैं।।
  4. जो व्यक्ति अन्यों को पीड़ा पहुँचाकर अपने ही शरीर का पालन करता है वह महारौरव नामक नरक में गिरता है। इस नरक में क्रव्याद नामक रुरु पशु उसको सताते और उसका मांस खाते हैं।
  5. जो क्रूर व्यक्ति अपने शरीर के पालन तथा अपनी जीभ की स्वाद पूर्ति के लिए निरीह जीवित पशुओं तथा पक्षियों को पका कर खाते हैं। वे यमदूतों के द्वारा कुम्भीपाक नरक में ले जाये जाते हैं, जहाँ उन्हें उबलते तेल में भून डाला जाता हैं।
  6. ब्राह्मण-हन्ता को कालसूत्र नामक नरक में रखा जाता है, इस लोक की ताम्र-सतह ऊपर से तपते सूर्य द्वारा और नीचे से अग्नि द्वारा तप्त होने से अत्यधिक गरम रहती है। इस प्रकार ब्राह्मण का वध करने वाला भीतर और बाहर से जलाया जाता है।
  7. यदि कोई व्यक्ति किसी प्रकार की विपत्ति न होने पर भी वैदिक पथ से हटता है, तो यमराज के दूत उसे असिपत्रवन नामक नरक में ले जाकर कोड़ों से पीटते हैं।
  8. यमदूत निर्दोष पुरुष या ब्राह्मण को शारीरिक दण्ड देने वाले पापी राजा अथवा राज्याधिकारी को सूकरमुख नामक नरक में ले जाते हैं जहाँ उसे यमराज के दूत उसी प्रकार कुचलते हैं, जिस प्रकार गन्ने को पेर कर रस निकाला जाता है। ।
  9. उच्च श्रेणी के मुनष्य ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य—, यदि ज्ञानवान होते हुए भी विवेकहीन तुच्छ प्राणियों को मारता है । श्रीभगवान् ऐसे मनुष्य को अन्धकूप में रखकर दण्डित करते हैं
  10. जो मनुष्य कुछ भोजन प्राप्त होने पर उसे अतिथियों, वृद्ध पुरुषों तथा बच्चों को न बाँट कर स्वयं खा जाता है अथवा बिना पंचयज्ञ किये खाता है, उसे कौवे के समान मानना चाहिए। मृत्यु के बाद वह निकृष्ट नरक/ कृमिभोजन में रखा जाता है। ।
  11. जो पुरुष आपत्तिकाल न होने पर भी ब्राह्मण अथवा अन्य किसी के रत्न तथा सोना लूट लेता है, वह सन्दंश नामक नरक में रखा जाता है। उनका पूरा शरीर खण्ड-खण्ड कर दिया जाता है।
  12. यदि कोई पुरुष या स्त्री विपरीत लिंग वाले अगम्य सदस्य के साथ संभोग करते हैं, तो मृत्यु के बाद यमराज के दूत उसे तप्तसूर्मि नामक नरक में दण्ड देते हैं। पुरुष को तप्तलोह की बनी स्त्री से और स्त्री को ऐसी ही पुरुष-प्रतिमा से आलिंगित कराया जाता है। व्यभिचार के लिए ऐसा ही दण्ड है।
  13. जो व्यक्ति विवेकहीन होकरयहाँ तक कि पशुओं के साथ भी व्यभिचार करता है उसे मृत्यु के बाद वज्रकंटकशाल्मली नामक नरक में ले जाया जाता है।
  14. जो मनुष्य श्रेष्ठ कुलयथा क्षत्रिय, राज परिवार में जन्म ले करके नियत नियमों के पालन की अवहेलना करता है, अधम बन जाता है, वह मृत्यु के समय वैतरणी नामक नरक की नदी में जा गिरता है। यह नदी नरक को घेरने वाली खाईं के समान है और अत्यन्त हिंस्र जलजीवों से पूर्ण है।
  15. इस लोक में शूद्रओं के साथ सम्बंध गाँठ कर पशुओं के समान जो आचरण करते हैं, ऐसे व्यक्ति मृत्यु के पश्चात् पूयोद नामक नरक में फेंक दिये जाते हैं, जहाँ वे मल, पीब, श्लेष्मा, लार तथा ऐसी ही अन्य वस्तुओं से पूर्ण समुद्र में रखे जाते हैं। ।
  16. यदि इस जीवन में उच्च वर्ग का मनुष्य (ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य) कुत्ते, गधे तथा खच्चर पालता है, आखेट करता तथा वृथा ही पशुओं को मारने में अत्यधिक रुचि लेता है, तो मृत्यु के पश्चात् वह प्राणरोध नामक नरक में डाला जाता है।
  17. जो व्यक्ति इस जन्म में अपने ऊँचे पद पर गर्व करता है और केवल भौतिक प्रतिष्ठा के लिए पशुओं की बलि चढ़ाता है, उसे मृत्यु के पश्चात् वैशसन नामक नरक में रखा जाता है
  18. यदि कोई मूर्ख द्विज (ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य) भोगेच्छा से अपनी पत्नी को अपने वश में रखने के लिए उसे अपना वीर्य पीने को बाध्य करता है, तो मृत्यु के पश्चात् उसे लालाभक्ष नरक में रखा जाता है। वहाँ उसे वीर्य पीने को विवश किया जाता है।
  19. जिन लोगों का व्यवसाय लूटपाट, दूसरों के घरों में आग लगाना अथवा उन्हें विष देना है, ऐसे असुरों को सारमेयादन नामक नरक में रखा जाता है। उस नरक में सात सौ बीस कुत्ते हैं ,ये कुत्ते यमराज के दूतों के आदेश पर ऐसे पापीजनों को भूखे भेडिय़ों की भाँति निगल जाते हैं।
  20. इस जीवन में जो व्यक्ति किसी की झूठी गवाही देने, व्यापार करते अथवा दान देते समय किसी भी तरह का झूठ बोलता है, ऐसा पापी व्यक्ति आठ सौ मील ऊँचे पर्वत की चोटी से मुँह के बल अवीचिमत् नामक नरक में नीचे फेंक दिया जाता है। ।
  21. जो ब्राह्मणी या ब्राह्मण मद्यपान करता है उसे यमराज के दूत अय:पान नामक नरक में ले जाते हैं। यदि कोई क्षत्रिय, वैश्य अथवा व्रत धारण करने वाला मोहवश सोमपान करता है, तो वह भी इस नरक में स्थान पाता है। ।
  22. जो पुरुष अहंकार के वशीभूत हो श्रेष्ठ पुरुषों का सत्कार नहीं करता, वह क्षार कर्दम नरक में गिरता है ।
  23. इस संसार में ऐसे भी पुरुष तथा स्त्रियाँ हैं, जो भैरव या भद्रकाली को नर-बलि चढ़ाकर अपने द्वारा बलि किए गये शिकार का मांस खाते हैं। यमलोक में वे लोग पशु के समान रक्षोगण भोजन नामक नरक में गिरते हैं।
  24. इस जीवन में कुछ व्यक्ति गाँव या वन में रक्षा के लिए आये हुए पशुओं तथा पक्षियों को शरण देते हैं और उन्हें अपनी सुरक्षा का विश्वास हो जाने के बाद उन्हें बर्छे या डोरे में फाँस कर घोर पीड़ा पहुँचाकर उनसे खिलौने जैसा खेलते हैं। ऐसे व्यक्ति मृत्यु के पश्चात् यमराज के दूतों द्वारा शूलप्रोत नामक नरक में ले जाये जाते हैं
  25. जो व्यक्ति इस जीवन में ईर्ष्यालु सर्पों के समान क्रोधी स्वभाव वाले अन्य जीवों को पीड़ा पहुँचाते हैं, वे मृत्यु के पश्चात् दन्दशूक नामक नरक में गिरते हैं। इस नरक में पाँच या सात फण वाले सर्प हैं, जो इन पापात्माओं को खा जाते हैं ।
  26. जो व्यक्ति इस जीवन में अन्य जीवों को अन्धे कुएँ, खत्ती या पर्वत की गुफाओं में बन्दी बनाकर रखते हैं, वे मृत्यु के पश्चात् अवट-निरोधन नामक नरक में रखे जाते हैं,जहाँ विषैले धुएँ से उनका दम घुटता है और वे घोर यातनाएँ उठाते हैं।
  27. जो गृहस्थ अतिथियों अथवा अभ्यागतों को क्रोध भरी कुटिल दृष्टि से देखता है,उसे पर्यावर्तन नामक नरक में ले जाकर रखा जाता है जहाँ उसे वज्र जैसी चोंच वाले गीध, बगुले, कौवे तथा इसी प्रकार के अन्य पक्षी घूरते हैं और सहसा झपट कर तेजी से उनकी आँखें निकाल लेते हैं।
  28. जो व्यक्ति धनाभिमान से दूसरों को कुटिल दृष्टि से देखते हैं, अथवा किसी का भी विश्वास नहीं करते, उसे सूचीमुख नामक नरक में रखा जाता है, जहाँ यमराज के दूत उसके सारे शरीर को दर्जियों की तरह धागे से सिल देते हैं।

यमराज के समक्ष जब कोई पापी आत्मा आती है, तो वह उसे अपना भयंकर रूप दिखाते है, यमराज का विकराल स्वरुप देख कर पापी आत्मा भयभीत हो जाती है। यमराज उन्हें मृत्युपाश मारते हैं एवं उनके पापों को देखकर यथोचित दंड देने की आज्ञा देते हैं ।

निर्णय का समय

जिन जीव आत्माओं की अकाल मृत्यु हो जाती है, उन जीव आत्माओं का निर्णय नहीं हो पाता, जिन्हे स्वर्ग, नर्क, या वैकुण्ठ धाम में स्थान नहीं मिलता वह पितृलोक में अनिश्चित काल तक प्रतीक्षा करती है। जिनके बच्चों ने दिवंगत आत्मा का श्राद्ध नहीं किया, तो अतिवाहक शरीर क्षीण हो जाता है, और आत्मा को यातनाएं भोगनी पड़ती है, क्योंकि यमदूतों को भी भूखा रहना पड़ता है। भगवान् नरसिंह कहते हैं कि श्राद्ध करने से श्राद्ध भोजन (१) स्वर्ग में आत्माओं को अमृत के रूप में मिलेगा, (२) म्रत्यु लोक में (क) पशुओं को घास के रूप में प्राप्त होगा, (ख) पक्षीयों को फल के रूप में प्राप्त होगा, (ग) मनुष्यों को अन्न के रूप में, (३) पितृलोक के राजा हैं अर्यमा, जिनका वाहन कौवा है। वह कौवा रोटी  खाता है, और फिर ले जाकर अपने राजा को देता है, जो आगे आत्मा तक पहुंचता है।

श्रवण ब्रह्मा के पुत्र हैं। वे स्वर्ग, पृथ्वी तथा पाताल लोक तक घूमा करते हैं, यहाँ तक कि आपके साथ परछाई की तरह रहते हैं। उनको दूर ही से सुनने का ज्ञान है और दूर से देखने वाले उनके नेत्र हैं। श्रवणी उन श्रवणों की स्त्रियां है, वें भी उन्हीं के समान है। वे सब स्त्रियों की चेष्टाओं को जानती हैं। मनुष्य छिपकर अथवा प्रत्यक्ष रूप से जो कुछ कर्म करता है, उन सभी शुभ-अशुभ कर्मों को श्रवण और श्रवणी जानते है, और चित्रगुप्त जी को जीवात्मा का सारा विवरण बताते हैं।

जब चित्रगुप्त जी के समक्ष कोई पुण्य आत्मा आती है तो वे उन्हें नमस्कार करते है और बैठने के लिए आसन भी देते है। ऐसी महान आत्माओं को यमराज भी प्रणाम करते है और उन्हें यमराज से भय भी नहीं लगता। यमराज उन्हें एक महान वैष्णव, बारह(12) महाजनो में से एक, देवता स्वरुप में नज़र आते है । पुण्य आत्मा धर्मराज और उनकी सभा को प्रणाम करके देवगणों से पूजित विमानों से आरूड़ होकर परमपद हेतु गमन करते हैं।

स्वर्ग की ओर जाने वाली पुण्यात्मा

जो पुण्य आत्मा, ब्रह्मऋषि, मातृ-पितृ भक्त, धर्मरत, क्रोध-लोभ रहित, गुरुसेवक, भू-दाता, गौ-दाता, वेद पुराण वाचक तथा श्रोता, सत्य-पुरुष, पवित्र आत्मा वाले प्राणी हैं, गुरु और भगवान में प्रीति रखकर वेद व शास्त्र का वचन सच मानते हैं, जो हरि नाम संकीर्तन में लीन रहते हैं, वे स्वर्ग की ओर जाने वाली पुण्य आत्माएँ हैं। यहां वैदिक देवता, जैसे सूर्यदेव, वायुदेव आदि वास करते हैं। स्वर्ग में आत्माएँ अपने कर्म अनुसार निश्चित समय तक रहती हैं, और पुण्य क्षय होने के बाद पुन: मृत्यु लोक में आना होता है। ऐसी पुण्य आत्माओं को किसी भी दुर्गम मार्ग से नहीं जाना होता, उनको लेने के लिए यमदूत नहीं देवदूत विमान में आते हैं, जो तब आएगा, जब जीव ने जीवन काल में श्री हरि नाम जप किया हो:

।। हरे राम हरे राम राम राम हरे ।।
।। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्णा कृष्णा हरे हरे ।।

स्वर्ग से ऊपर भी कई भुवन हैं। भुवंर लोक: जिसमें दिव्य आत्माएँ, तपस्वी ऋषि निवास करते हैं। सप्त ऋषि अपने कर्मों अनुसार ऊपर-नीचे जा सकते हैं। महरलोक में ऋषि रहते हैं, ये बहुत तेज गति से कहीं भी आ-जा सकते हैं। जनकलोक में विराज नाम के देव निवास करते हैं। तपलोक: यहां चार ऋषि कुमार निवास करते हैं। ये अनश्वर हैं, अर्थात् इन की मृत्यु नहीं होती। उनके नाम हैं सनक (प्राचीन), सनन्दन (हमेंशा खुश रहने वाला), सनातन (शाश्वत), सनत कुमार (हमेंशा युवा)। इन्हें भगवान विष्णु का अवतार भी कहा जा सकता है और इनका शरीर पांच वर्ष के बच्चे के समान बना रहता है। ये मन से साफ और आजीवन पवित्र रहते हैं। यहां तक कि वैकुंठ में भी इन्हें जाने की अनुमति है। ये सिर्फ तपस्या करते हैं, इसलिए इसे तपलोक कहते हैं। सत्यलोक/ ब्रह्मलोक: यहां ब्रह्मांड के रचयिता ब्रह्माजी अपनी पत्नी देवी सरस्वती के साथ वास करते हैं। यहां सर्वत्र कमल के फूल हैं, जिनसे दिव्य ऊर्जा प्रवाहित होती है। भूलोक: यहां पर पाप-पुण्य में उलझने वाले वे मनुष्य, जो ईश्वर और देवताओं की निगरानी में अपना जीवन व्यतीत करते हैं, निवास करते हैं।

तीन लोक और चौदह भुवन हैं। तीन लोक हैं – आकाश-पृथ्वी-पाताल। सबसे ऊपर है वैकुंठ लोक। भूलोक/ पृथ्वीलोक (सहित) ऊपर सात भुवन हैं, और नीचे सात भुवन हैं, क्रमशः अतल, वितल, सुतल, तलातल, महातल, रसातल, और पाताललोक, यहां भगवान विष्णु भक्त राजा बलि, कालिया नाग, वासुकि, मायावी बाला असुर आदि विराजते हैं।

वैकुण्ठ द्वार

आदरणीय गुरुजी का मानना है कि वैकुंठ का द्वार खुला है, पर जीव तत्पर नहीं हैं। यदि मानव वास्तव में वैकुण्ठ चाहता है तो अपने जीवन काल में निम्नलिखित का उपयोग केवल भगवत् प्राप्ति के उद्देश्य से किया जाए, जो कि कठिन है, वह श्री वैकुण्ठ द्वार का अधिकारी है, जैसा कि श्री वैकुण्ठ धाम की प्रत्येक सीढ़ी में दर्शया गया है:

  1. पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ: कान, नाक, आँख, जिव्हा एवं, त्वचा
  2. पाँच कर्मेन्द्रियाँ: वाणी, हाथ, पैर, गुदा, एवं शिशन
  3. पाँच विषय: शब्द, स्पर्श, रुप, रस एवं गंध
  4. नौ द्वार: कान, नाक, आँख, मुख, गुदा, लिंग
  5. सात चक्र: मूलाधार चक्र, स्वाधिष्ठान चक्र, मणिपुर चक्र, अनाहत चक्र, विशुद्ध चक्र, आज्ञा चक्र एवं सहस्रार चक्र

वैकुण्ठ के द्वार तक देव और दानव पहुँच सकते हैं। देव से बड़े दानव हैं, क्योंकि वे साधना, तप के बल पर उस परम पिता परमात्मा को वर देने के लिए विवश कर देते हैं। विधि के विधान अनुसार, परमात्मा के ना चाहते हुए भी, वरदान प्राप्त कर लेते हैं। वरदान प्राप्त करने के बाद दानव अहंकार के वशीभूत, स्वार्थ में लिप्त हो जाते हैं। यही कारण है कि वह वैकुण्ठ लोक में प्रवेश नहीं कर पाते।

देवता गण, संयम, श्रद्धा और समर्पण की पताका हाथ में लेकर, सत्य, अहिंसा, त्याग, दया और क्षमा रूपी स्तम्भ पर स्थापित वैकुण्ठ धाम में, जहाँ श्री सत्यनारायण विराजमान हैं, भिन्न-भिन्न नियति अनुसार मानव और देवगण वहाँ जाने की चेष्टा करते हैं।