मृत्यु
मृत्यु
न तो यह शरीर तुम्हारा है और न ही तुम इस शरीर के हो। यह शरीर पांच तत्वों से बना है: अग्नि, जल, वायु, पृथ्वी और आकाश। एक दिन यह शरीर इन्हीं पांच तत्वों में विलीन हो जाएगा।
मृत्यु एक शाश्वत सत्य है। जो इस भौतिक जगत में आया है, वह जायेगा जरूर, आज नहीं तो कल, आत्मा वो अदृश्य शक्ति है जो जीव के शरीर को सजीव रखती है। जब आत्मा शरीर से निकल जाती है तो जीव का शरीर एक खाली मकान की तरंह निर्जीव रह जाता है। यही अवस्था मृत्यु है। मृत्यु पंच तत्वों से बने इस शरीर की होती है।
श्रीमद् भगवद्गीता में भगवान् श्री कृष्ण कहते है:
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावक:।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुत:॥
आत्मा को शस्त्र काट नहीं सकते, न अग्नि इसे जला सकती है, जल इसे गीला नहीं कर सकता और वायु इसे सुखा नहीं सकती।
योजना
महाभारत में यक्ष ने युधिष्ठिर जी से एक बहुत ही महत्वपूर्ण प्रश्न किया था कि इस संसार में सबसे आश्चर्यजनक बात क्या है? युधिष्ठिर जी कहते हैं:
अहन्यहनि भूतानि गच्छन्तीह यमालयम्।
शेषाः स्थावरमिच्छन्ति किमाश्चर्यमतः परम् ॥
अर्थात्: प्रतिदिन ही प्राणी यम के घर में प्रवेश करते हैं, शेष प्राणी अनन्त काल तक यहाँ रहने की इच्छा करते हैं। इससे बड़ा और क्या आश्चर्य हो सकता है!
हम सोचते हैं कि हम चिरकाल तक इस संसार में रहेंगे, जबकि हमें इस संसार को कभी भी छोड़ कर जाना पड़ सकता हैं। इस यात्रा के लिए हम कोई भी योजना नहीं बनाते, समय रहते उचित कार्य/ प्रबंध नहीं करते, जबकि यह जिंदगी का अति महत्वपूर्ण कार्य है। यही सबसे बड़ी आश्चर्यजनक बात है।
हम दूसरों के शरीर त्यागने पर, मृत्यु पर, शमशान भूमि, चौथे, या उठाले पर जाते हैं, और शोक व्यक्त करके वहां से चले आते हैं। घर आकर स्नान करते हैं, और दोबारा अपनी साधारण जिंदगी व्यतीत करने लगते हैं। करते कुछ भी नहीं, सोचते समझते नहीं, विचार विमर्श करते नहीं कि कल हम भी मरेंगे, यह संसार को हमें छोड़्ना पड़ेगा इसके बारे में विचार करने की अति आवश्यकता है।
भजन: भगवान् से इच्छा
इतना तो करना स्वामी, जब प्राण तन से निकले। |
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श्री गंगा जी का तट हो, यमुना का वंशी वट हो। |
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श्री वृन्दावन स्थल हो, मुखड़े में तुलसी दल हो। |
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सन्मुख सांवरा खड़ा हो, वंशी का स्वर भरा हो। |
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सिर सोहना मुकुट हो, मुखड़े पे काली लट हो। |
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उस वक्त जल्दी आना, न कौल भूल जाना। |
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मेरे प्राण निकले सुख से, तेरा नाम निकले मुख से। |
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मृत्यु का समय
मृत्यु से पहले मनुष्य का शरीर ढल जाता है, कंठ में अवरोध हो जाता है, आंखों में पानी भर जाता है। जब आत्मा शरीर से बाहर निकलती है,जैसे एक व्यक्ति को एक बिच्छू के डंक मारने पर जितना दर्द होता है, ऐसे 40,000 बिच्छू एक ही जगह पर, एक ही वक़्त पर डंक मारे उतना दर्द होता है। मृत्यु से पहले दो यमदूत आते हैं । ये दोनों यमदूत बहुत बड़े आकार के और भयानक होते है। इनका रंग काला, नेत्र लाल, टेढ़ा मुख, केश ऊपर को उठे हुए, हाथो में पाश और दंड, एवं शरीर नग्न होता है। वह क्रोध करते हुए दाँतों को पीसते है । इनको देखकर प्राणी भयभीत हो जाता है । मृत्यु का समय आने पर यमदूत उस आत्मा को शरीर से निकालते हैं। शरीर यहीं छूट जाता है और यमदूत आत्मा को लेकर चले जाते है।
आत्मा जब शरीर छोड़ती है तो मनुष्य को पहले ही पता चल जाता है। ऐसे में वो स्वयं भी हथियार डाल देता है अन्यथा उसने आत्मा को शरीर में बनाये रखने का भरसक प्रयत्न किया होता है, और इस चक्कर में कष्ट को झेला होता है। अंत समय में जब आत्मा शरीर से निकलने की तैयारी कर रही होती है तब मनुष्य के सामने उसके सारे जीवन की यात्रा चलचित्र की तरह चल रही होती है। ।
शरीर के पाँच प्राण, एक ‘धनंजय प्राण‘ को छोड़कर, शरीर से बाहर निकलना आरम्भ कर देते हैं। ये प्राण, आत्मा से पहले बाहर निकलकर आत्मा के लिये सूक्ष्म-शरीर का निर्माण करते हैं। जोकि शरीर छोड़ने के बाद आत्मा का वाहन होता है। धनंजय प्राण पर सवार होकर आत्मा शरीर से निकलकर इसी सूक्ष्म-शरीर में प्रवेश कर जाती है। बहरहाल, अभी आत्मा शरीर में ही होती है।
ज्ञात रहे, जब दूसरे प्राण धीरे-धीरे शरीर से बाहर निकल रहे होते है, तो व्यक्ति को पता चल जाता है। उसे बेचैनी होने लगती है, घबराहट होने लगती है। सारा शरीर फटने लगता है, खून की गति धीमी होने लगती है। सांस उखड़ने लगती है। बाहर के द्वार बंद होने लगते हैं। अर्थात् अब चेतना लुप्त होने लगती है और मूर्च्छा आने लगती है।
फिर मूर्च्छा आ जाती है और आत्मा एक झटके से किसी भी खुली हुई इंद्री से बाहर निकल जाती है। इसी समय चेहरा विकृत हो जाता है। यही आत्मा के शरीर छोड़ देने का मुख्य चिन्ह होता है। शरीर छोड़ने से पहले – केवल कुछ पलों के लिये आत्मा अपनी शक्ति से शरीर को शत-प्रतिशत सजीव करती है – ताकि उसके निकलने का मार्ग अवरुद्ध ना रहे – और फिर उसी समय आत्मा निकल जाती है और शरीर खाली मकान की तरह निर्जीव रह जाता है।
जब किसी व्यक्ति की आत्मा शरीर छोड़ने को तैयार होती है तो उसके अपने सगे-संबंधी जो मृतात्माओं के तौर पर होते है, उसे लेने आते है और व्यक्ति उन्हें यमदूत समझता है और कुत्ते-बिल्ली उन्हें साधारण जीवित मनुष्य ही समझते है और अन्जान होने की वजह से उन्हें देखकर रोते है और कभी-कभी भौंकते भी हैं।
बुढ़ापे के समय इंद्रियों का सामर्थ्य घट जाने से कोई कर्म विधि पूर्वक नहीं बन पड़ता। इसलिए कभी ऐसा विचार नहीं करना चाहिए कि अभी तरुणाई में संसारी सुख उठा लें, बुढ़ापे के समय परलोक की सोच कर लेंगे। मनुष्य का शरीर वृक्ष के समान है। कालरुपी लोहार उस वृक्ष को काटने के लिए दिन-रात उस पर कुल्हाड़ा चलाता है, ना मालुम किस समय यह शरीर रूपी वृक्ष गिर पड़ेगा। इसलिए मनुष्य को संसारी प्रीति से विरक्त रहकर दिन-रात अपनी मृत्यु की याद और मेरे चरणों का ध्यान करना चाहिए जिससे उसकी मुक्ति हो।
शरीर के प्रकार
हमारे शरीर में तीन प्रकार के शरीर रहते है।
- सबसे ऊपर हमारा पंच तत्वों (भूमि, गगन, वायु, जल, और अग्नि) से बना हुआ शरीर है। इस पंच तत्वों के शरीर को स्थूल शरीर कहते हैं।
- इसके नीचे एक छोटा शरीर रहता है, जिसको सूक्ष्म शरीर कहते है। सूक्ष्म शरीर में मन, बुद्धि, और अहंकार रहते है। ।
- इसके अंदर एक और शरीर होता है जिसको कहते हैं: सत्-चित्-आनंद आत्मा।
शरीर के पाँच प्रकार के प्राण बाहर निकलकर उसी तरह सूक्ष्म-शरीर का निर्माण करते हैं। जैसे गर्भ में स्थूल-शरीर का निर्माण क्रम से होता है। सूक्ष्म-शरीर का निर्माण होते ही आत्मा अपने मूल वाहक धनंजय प्राण के द्वारा बड़े वेग से निकलकर सूक्ष्म-शरीर में प्रवेश कर जाती है। आत्मा शरीर के जिस द्वार से निकलती है उसे खोलती, तोड़ती हुई निकलती है।
स्थूल शरीर के नौ द्वार
हमारे शरीर के नौ द्वार इस प्रकार हैं:
जो लोग भयंकर पापी होते है, उनकी आत्मा मूत्र या मल द्वार से निकलती है। जो पापी भी है, और पुण्यात्मा भी है, उनकी आत्मा मुख से निकलती है। जो पापी कम और पुण्यात्मा अधिक है, उनकी आत्मा नेत्रों से निकलती है, और जो पूर्ण धर्मनिष्ठ हैं, पुण्यात्मा और योगी पुरुष है, उनकी आत्मा ब्रह्मरंध्र (ब्रह्मांड द्वार) से निकलती है। ब्रह्मरंध्र को दशम द्वार कहा गया है। सिर पर सबसे ऊपर ब्रह्मरन्ध्र नाम का एक बिंदु होता है। नवजात शिशु की खोपड़ी के मध्य भाग में थोड़ा सा खाली स्थान होता है, जिस में हड्डी ना होकर झिल्ली होती है, शरीर की वृद्धि के साथ-साथ सर की हड्डियां बढ़ती हैं, और इस स्थान को ढक देती है। मस्तिष्क के ऊपरी भाग में इड़ा, पिंगला व सुषुम्ना आदि नाड़ियों का मिलन बिन्दु/ स्थल को ब्रह्मरंध्र कहते हैं। योग दर्शन के अनुसार ब्रह्मरंध्र एक मनुष्य का ब्रह्मांड की असीम शक्तियों से संपर्क करने का रास्ता है, इसीलिए इसे ब्रह्मांड द्वार कहते हैं।
गंगा–जल पिलाने का विधान
आत्मा के शरीर छोड़ते समय व्यक्ति को पानी की बहुत प्यास लगती है। शरीर से प्राण निकलते समय कण्ठ सूखने लगता है। ह्रदय सूखता जाता है और इससे नाभि जलने लगती है। लेकिन कण्ठ अवरूद्ध होने से पानी पिया नहीं जाता और ऐसी ही स्तिथि में आत्मा शरीर छोड़ देती है। प्यास अधूरी रह जाती है। [जैसे अग्नि को पाकर रुई का ढेर जल जाता है, वैसे ही गंगा जल को पीने से पाप नष्ट हो जाता है।] इसलिये अंतिम समय में मुख में ‘गंगा-जल‘ डालने का विधान है।
शमशान का पीपल: यमघंट
इसके बाद आत्मा का अगला पड़ाव होता है शमशान का पीपल । यहाँ आत्मा के लिये यमघंट बंधा होता है। जिसमे पानी होता है। यहाँ प्यासी आत्मा यमघंट से पानी पीती है जो उसके लिये अमृत तुल्य होता है। इस पानी से आत्मा तृप्ति का अनुभव करती है । यह सब सनातन धर्म शास्त्रों में विधान है कि मृतक के लिये ये सब करना होता है ताकि उसकी आत्मा को शान्ति मिले।
प्रेत योनि से बचने के उपाय
अगर किसी कारण वश मृतक का दस गात्र का श्राद्ध ना हो सके और उसके लिये पीपल पर यमघंट भी ना बाँधा जा सके तो उसकी आत्मा प्रेत-योनि में चली जायेगी और फिर कब वहां से उसकी मुक्ति होगी। कहना कठिन होगा। हां, कुछ उपाय अवश्य है:
- देहावसान होने के समय से लेकर तेरह दिन तक निरन्तर भगवान् के नामों का उच्च स्वर में जप अथवा कीर्तन किया जाय और जो संस्कार बताए गए हैं उनका पालन करने से मृतक भूत प्रेत की योनि, नरक आदि में जाने से बच जाएगा, लेकिन ये करेगा कौन? ये संस्कारित परिजन, सन्तान, नातेदार ही कर सकते हैं। अन्यथा आजकल अनेक लोग औपचारिकता निभाकर केवल दिखावा ही अधिक करते हैं।
- मरने वाला व्यक्ति स्वयं भजनानंदी हो, भगवान् का भक्त हो और अंतिम समय तक यथासंभव हरि स्मरण में रम रहा हो।
- भगवान् के धामों में देह त्यागी हो, अथवा दाह संस्कार काशी, वृंदावन या चारों धामों में से किसी में किया हो।
स्वयं विचार करना चाहिए कि हम दूसरों के भरोसे रहें या अपना हित स्वयं साधें। श्री श्याम सुंदर जी महाराज ने बताया कि जीवन बहुत अनमोल है, इसको व्यर्थ मत गवाओ। एक एक पल को सार्थक करो हरिनाम का नित्य आश्रय लो। मन के दायरे से बाहर निकल कर सचेत होकर जीवन को जिओ, ना कि मन के अधीन होकर। ये मानुष जन्म बार बार नहीं मिलता। जीवन का एक एक पल जो जीवन का गुजर रहा है, वह फिर वापिस नही मिलेगा। इसमें जितना अधिक हो भगवान् का स्मरण जप करते रहें।
हर पल जो भी कर्म करो बहुत सोच कर करो, क्यूंकि कर्म परछाईं की तरह मनुष्य के साथ रहते है। इसलिए सदा शुभ कर्मों की शीतल छाया में रहो। वैसे भी कर्मों की ध्वनि शब्दों की ध्वनि से अधिक ऊँची होती है, अतः सदा कर्म सोच विचार कर करो। ज्ञात रहे जिस प्रकार धनुष में से तीर चल जाने के बाद वापिस नहीं आता,उसी प्रकार जो कर्म आपसे हो गया वो उस पल का कर्म वापिस नही होता चाहे अच्छा हो या बुरा। इसलिए इससे पहले कि आत्मा इस शरीर को छोड़ जाये, शरीर मे रहते हुए आत्मा को अर्थात् स्वयं को जान लो और जितना अधिक हो सके मन से, वचन से, कर्म से चतुर्भुज शंखधारी भगवान् श्री सत्यनारायण, श्रीराम, श्रीकृष्ण का ध्यान, चिंतन, जप कीर्तन करते रहो, निरन्तर स्मरण से हम यम फास से तो बचेंगे ही बचेंगे साथ ही हमें भगवत धाम भी प्राप्त हो सकेगा जोकि जीवन का वास्तविक लक्ष्य है।