कला
कला
यह संसार एक वृक्ष के समान है। इसकी मुख्य शाखा ब्रह्म है। वेद इसके पत्ते हैं। शब्द, रस, रूप, स्पर्श और गंध इसके कोपल हैं। इस संसार रूपी वृक्ष को सत्, रज, तम तीनों रूपों से सींचा जाता है। असत्य का मारा पुरुष इस माया-जाल में ही उलझा रहता है। यदि ज्ञान और वैराग्य की तलवार से इस वृक्ष की डाल काट दी जाए तो जीव सूक्ष्म शरीर धारण करके परमपिता परमात्मा में लीन हो जाता है। शब्द, रस, रूप, स्पर्श और गंध के विषय में आपको बता देना चाहते हैं। अनादि तामस अहंकार (सत्, रज, तम) से इच्छाएं उत्पन्न हुईं, उन इच्छाओं के पांच गुण हुए जो इस प्रकार हैं:
- आकाश – शब्द
- जल – रस
- वायु – स्पर्श
- पृथ्वी – गंध
- तेज – रूप
भारतीय संस्कृति में भक्ति और उपासना की प्रमुखता है। मनुष्य अपने कल्याण के लिए उन्हीं का सहारा लेता है। ईश्वर रूप में, अपने चित्त को स्थिर करने का नाम ही उपासना है और चित्त की स्थिरता बलपूर्वक नहीं होती, प्रेम और संयम से ही चित्त स्थिर होता है, उससे परमात्मा से प्रेम होता है। इस परमात्मा-प्रेम को ही भक्ति कहते हैं। पूजा या साधना, भक्ति के लिए एक शब्द है, जो हमारे संसार की संपूर्ण शक्ति के नियंता के सम्मुख व्यक्त किया जाता है। जिसके प्रमुख तरीके हैं:- प्रार्थना, उपवास, गुरु-सेवा, दान देना, मंदिर जाना और नियमित रूप से पूजा-आराधना करना है।
परमेश्वर ने सृष्टि और प्रलय की व्याख्या के साथ अध्यात्म-ज्ञान का विवेचन भी किया है, जिसे जानकर मनुष्य इस संसार में सुख और प्रसन्नता का भागी बन सकता है। उसे अभीष्ट फल की प्राप्ति होती है। यह अध्यात्म-ज्ञान संसारिक प्राणियों के लिए हितकर है।
पृथ्वी, वायु, आकाश, जल और अग्नि में पांच महाभूत संपूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति और प्रलय के साधन हैं। जैसे लहरें समुद्र से प्रकट होकर उसी में विलीन हो जाती हैं, उसी प्रकार यह पंचमहाभूत परमात्मा से उत्पन्न हुए हैं और उसी में सभी जीवो सहित बार-बार विलीन हो जाते हैं। उदाहरण के लिए कछुआ अपने अंगों को फैला कर उन्हें अपने में समेट लेता है, उसी प्रकार सभी प्राणियों के जनक परम ब्रह्म परमेश्वर अपने रचे हुए संपूर्ण रूपों को फैलाकर फिर अपने भीतर ही समेट लेते हैं।
संपूर्ण भूतों की सृष्टि करने वाले परमात्मा ने सब प्राणियों के शरीरों में केवल पांच महाभूतों को स्थापित किया है, परंतु उनमें अंतर कर दिया है। किसी महाभूत के अंश को अधिक और किसी के अंश को कम करके रखा है। इसी अंतर को साधारण मनुष्य नहीं समझ पाता है।
शब्द, गुण, श्रोत इंद्रिय और शरीर के संपूर्ण छिद्र, यह तीन आकाश के कार्य हैं। स्पर्श चेष्टा और हवा यह तीन वायु के कार्य माने गए हैं।
रूप नेत्र और परिपाक: यह तीन तेज के कार्य बताए गए हैं। रस, जिह्वा तथा गीलापन, यह तीन जल के गुण अर्थात् कार्य माने गए हैं। गंध प्राणेंद्रिय और शरीर, यह तीन भूमि के गुण अर्थात् कार्य हैं। इस प्रकार इस शरीर में पांच महाभूत और छठा मन है, ऐसे ही परमेश्वर ने बताया है।
हे अर्जुन। श्रोत आदि पांच इंद्रियां और मन, ये मनुष्य को विषयों को ज्ञान कराने वाले हैं। शरीर में इन छह के अतिरिक्त सातवीं बुद्धि और आठवां क्षेत्रज्ञ, आत्मा है।
इंद्रियां विषयों को ग्रहण कराती हैं। मन संकल्प-विकल्प करता है। बुद्धि निश्चय कराने वाली है, और आत्मा साक्षी की भांति स्थिर रहती है।
दोनों पैरों के तलों से लेकर ऊपर तक जो शरीर स्थित है, उसे जो साक्षीभूत चेतन ऊपर नीचे सब ओर से देखता है, वह हमारे सारे शरीर के भीतर और बाहर सब जगह व्याप्त है। इस बात को मनुष्य को भली प्रकार समझ लेना चाहिए। सभी मनुष्यों को अपनी इंद्रियों, मन-बुद्धि,की देखभाल करते हुए, उनके विषयों में पूरी जानकारी रखनी चाहिए, क्योंकि सत्, रज और तम, ये तीनों गुण उन्हीं का सहारा लेकर रहते हैं।
मनुष्य अपनी बुद्धि के बल से इन सब को और जीवों के आवागमन की अवस्था को समझकर धीरे-धीरे विचार करने से शांति संतोष पा जाता है।
तम आदि गुण मनुष्य की बुद्धि को निरंतर विषय-वासना की ओर ले जाते हैं, तथा बुद्धि के साथ-साथ मन सहित पांचों इंद्रियों को उनकी समस्त आदतों को भी ले जाते हैं। इसलिए बुद्धि के अभाव में अच्छे गुण कैसे रह सकते हैं?
यह चराचर जगत बुद्धि के उदय होने पर ही उत्पन्न होता है और उसके विलीन होने के साथ ही नष्ट हो जाता है। यह सारा तारतम्य बुद्धि के अनुसार चलता है। अत: जीवात्मा ने सभी को बुद्धि रूपता के अनुसार जीने का निर्देश दिया है।
श्रद्धा और प्रेम ज्ञान प्राप्त करने का मूल साधन, ज्ञान प्राप्त करने का मूल साधन, केवल श्रद्धा और प्रेम है। श्रद्धा से विश्वास उत्पन्न होता है। किसी-किसी पौधे पर ज्ञान का फूल उगता है। श्रद्धा के बिना जीव बाहुबल और अहम् के घमंड से घूमता रहता है। फल स्वरुप वो निष्ठा और प्रेम से विचलित होता रहता है। बिना प्रेम के ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती।
हमारे शरीर में लगभग 72,000 नाड़ियां है। जिनमें शरीर का संचालन करने में प्रमुख 12 नाड़ियां दिमाग में है। आध्यात्मिक रूप से ईडा, पिंगला और सुषुम्ना का जिक्र है। ईडा-पिंगला के सक्रिय होने के बाद ही सुषुम्ना जागरूक होती है, जिसके बाद सप्त चक्र जागृत होते हैं।
चक्र |
तत्व |
बीज मंत्र |
१. मूलाधार चक्र |
पृथ्वी |
लं |
सबसे पहले मूलाधार चक्र है, जो लिंग और गुदा के मध्य में स्थित है। इस चक्र में कुंडलीय शक्ति का निवास होता है। इस कुंडली के अंदर मूल चित् शक्ति विराजमान है। इस शक्ति को जगाना और नियंत्रित करना योग का परम लक्ष्य है। यह मूलाधार चक्र मनुष्य बिम्ब दो का आधार चक्र है। इसे मूलाधार पदम् कहते हैं। इसमें पृथ्वी तत्व की प्रधानता है। मूलाधार चक्र से गंध,पदं लेख शक्ति, वाक् शक्ति और आरोग्य आदि की प्राप्ति होती है। |
||
२. स्वाधिष्ठान चक्र |
जल |
वं |
दूसरा स्वाधिष्ठान चक्र है। यह लिंग के मूल स्थान पर स्थित है। इसमें वर्णन तत्व की प्रधानता है। इसका ध्यान करने से आरोग्य, भक्ति और प्रभुत्व की प्राप्ति होती है। |
||
३. मणिपुर/ नाभि चक्र |
अग्नि |
रं |
मणिपुर चक्र जो नाभि के तत्व में स्थित है। इसमें अग्नि तत्व की प्रधानता है। इसमें आरोग्य, ऐश्वर्य एवं विनाश करने की शक्ति मिलती है। |
||
४. अनाहत चक्र |
वायु |
यं |
बारह पंखुड़ी वाला अनाहत चक्र, जो हृदय मंदिर में विद्यमान है। इसमें वायु तत्व की प्रधानता है। इसका ध्यान करने से अणु शक्ति की प्राप्ति होती है। |
||
५. विशुद्ध/ कंठ चक्र |
आकाश |
लं |
विशुद्ध चक्र जो कंठ में विद्यमान है। इसमें आकाश तत्व की प्रधानता है। इसका ध्यान करने से जरा और मृत्यु फास, पीड़ा से मनुष्य मुक्त हो जाता है। |
||
६ आज्ञा चक्र |
गुरु |
क्ष./हं, अथवा ओम |
आज्ञा चक्र जो दोनों भौहों के मध्य में स्थित है। इन दोनों के बीच एक ओंकार ज्योति सदा जलती रहती है। इसके त्रिकोण मंडल में ब्रह्मा, विष्णु और शिव का वास है। इसी आज्ञा चक्र पर इड़ा पिंगला व सुषुम्ना तीनों नाडियों का संगम होता है। वास्तव में यही त्रिवेणी संगम है। इस स्थान पर वायु क्रिया का अंत हो जाता है और यहां से ओंकार तत्व प्रारंभ होता है। दिव्य नाद का भी यही स्थान है। इस स्थान से साधक को जिस ज्योति के दर्शन होते हैं, वो वास्तव में उसकी आत्मशक्ति है, यह आत्म-शक्ति जीव आत्मा का प्रतिबिंब होता है। ध्यान द्वारा इस ज्योति के दर्शन पाने पर योग का कर्म-फल प्राप्त होता है और जीव योग प्रकृति के बंधन से मुक्त हो जाता है। |
||
७. सहस्रार चक्र |
परात्पर शिव |
ओम |
इसके पश्चात सातवां चक्र ब्रह्मरंध्र के ऊपर महाशुन्य में स्थित है। कमल की पंखुड़ी के बीच एक शक्ति मंडल है। इसके बीच में एक तेज बिंदु विद्यमान है, इसका प्रकाश करोड़ों सूर्य, उसे भी अधिक प्रकाशमान है। यह प्रकाश बिंदु अज्ञान के अंधकार का नाश करने वाला परमात्मा ही है। सहस्रार चक्र को विभिन्न संप्रदाय के लोग अलग-अलग नामों से पुकारते हैं। साधना के बल से इस बिंदु के दर्शन करने को ही ब्रह्म साक्षात्कार कहते हैं। योग के द्वारा इन चक्रों को जागृत किया जाता है। इन चक्रों के जागृत होने पर मनुष्य को ऐसी शक्ति प्राप्त होती है जिसके द्वारा वह एक स्थान पर बैठा दूर-दूर तक की वस्तुएं देख सकता है, और दूर बैठे योगियों से वार्तालाप भी कर सकता है। |
यह गुप्त ज्ञान संदीपन ऋषि ने परमपिता परमात्मा श्री कृष्ण को दिया कि एक और आठवां अर्थात् ब्रह्मांड चक्र है, जो शिव में ही समाहित हो जाता है, क्योंकि उन्हें नहीं मालूम था कि वास्तव में वे ही परमपिता परमात्मा हैं, इसका साक्षात्कार महर्षि गर्ग ने कराया।
ध्यान योग: परमात्मा से सम्पर्क
- स्वयं परमपिता परमात्मा श्री कृष्ण ने अर्जुन को ध्यान करने की सरल विधि बताई। हे अर्जुन, साधना के लिए एकांत वास और उसके आस पास का स्थान शुद्ध होना चाहिए। आसन लगा कर अपने शरीर को अचल करते हुए पीठ, गर्दन, सिर को सीधा रख कर अपनी दृष्टि अपने नाक के अग्र भाग पर केन्द्रित करें। ऐसा करने से आसपास की इन्द्रियों से तेरा सम्पर्क टूट जाएगा। योग के लिये अधिक खाना यां न खाना अधिक सोना यां न सोना, करने से तेरा संतुलन बिगड़ जायगा। संतुलन हीन व्यक्ति मेरी आराधना नहीं कर सकता। मेरी आराधना करने वाले व्यक्ति को दुःख-सुख में विचलित नहीं होना चाहिए, जो कि मेरी माया है।
- आत्मा अज़र अमर है। मानव शरीर त्यागने के बाद मनुष्य को अपने प्रारब्ध (पिछले कर्मों का वर्तमान में फल) के अनुसार अपने पाप और पुण्य की योनियों में जाना पड़ता है। पुण्य करने वाली जीव आत्मा स्वर्ग में रह कर पुण्य का भोग कर पुनः मृत्युलोक में जन्म लेती है। पाप योनी वाली पापी जीवआत्मा नर्क में रह कर अपने पापों को भोग कर पुनः मृत्युलोक में जन्म लेती है।
- कुछ भोग इसी जन्म में कुछ भोग अगले जन्म में भोगे जाते हैं। मोक्ष प्राप्ति के लिये मनुष्य जीवन मोक्ष का द्वार है, मनुष्य में ही विवेक है। हर एक प्राणी के पाँच शरीर होते हैं – स्थूल, अन्द्य, कोष, प्राणय प्रण, सुक्ष्म शरीर और मुख्यादी कोष,
- स्थूल शरीर: यह शरीर मृत्यु लोक में ही रह जाता है। मनुष्य जैसे आकार का एक सूक्ष्म शरीर प्राणी के हृदय में होता है जो कि प्रकृति के बंधन में नहीं आता।
- सूक्ष्म शरीर: वह सूक्ष्म शरीर आत्मा की प्रकाश ज्योति के साथ उसके पाप पुण्यों के साथ परलोक में जाता है, जिसे जीवात्मा कहते हैं एवं पाप पुण्य भोग कर पुनः मृत्युलोक में आता है। सूक्ष्म शरीर में ही आनंदमई कोष है उसमें आत्मा का वास है।
- मनुमयी कोष: जीव आत्मा मनुमयी कोष को धारण कर के आगे जाती है। इस में सूक्ष्म शरीर के साथ मनुष्य के पाप पुण्य जाते हैं, जैसे वायु अपने साथ फूलों की खुशबु ले जाती है।
हे अर्जुन:
इस शरीर में, इक सूक्ष्म शरीर समाये रे
ज्योति रूप वही सूक्ष्म रूप है, वह जीव आत्मा कहलाये रे
मृत्यु समय ये जीवात्मा, तन को तज के जाये रे
धन दौलत व सगे सम्बन्धी, कोई संग न आये रे
पाप पुण्य संस्कार स्मृति, ऐसे संघ ले जाए रे
जैसे फूलों से उसकी खुशबु, पवन उड़ा ले जाये रे
संघ तेरे कर्मो का लेखा, जैसा कर्म कमाये रे
अगले जनम में पिछले जनम का, आप ही सब चूकाए रे
- भगवान् श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा जहाँ से कभी आना नहीं होता, उसे ही मोक्ष (मोक्ष = मोह + क्षय) कहते हैं, और वही मेरा निज धाम है।
सब लोकों से लौट के जीव भूमि पर आता है।
वो नहीं लौटे जीव, जो धाम मेरे को आता है।
इसीलिए मनुष्य को ही मोक्ष का द्वार कहते हैं।
गुप्त ज्ञान
अंत समय में जो वासना होती है, अगला जन्म उसी के अंतर्गत होता है।
हे अर्जुन, जो जीवन भर पाप करता है, लेकिन अंत समय में मेरा सुमिरण करता है, वो मेरे ही धाम को आ जाता है। प्राण त्यागते समय अपनी सभी इन्द्रियों के द्वार हृदय में स्थिर करके प्राण को मस्तिष्क में स्थापित करके परम पिता परमात्मा का सुमिरण करते हुए ऊँ मन्त्र का उच्चारण करता है, उसके लिए मेरे द्वारा मोक्ष का द्वार खुला रहता है।
ऐसा दुराचारी पाप आत्मा, जन्मो जिसने पाप कामाये।
लेकर भाव अनन्य वो अर्जुन, मेरी शरण में यदि आ जाये।
धर्म आत्मा हो जाये, उसी क्षण, जिस क्षण मुझसे चित लगाये।
मेरे भक्त का नाश ना हो कभी, मेरी कृपा से मुक्ति वो पाये।
मेरा आश्रित मेरी कृपा से, शाश्वत् शांति परम सुख पाये।